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यहां से तप पुरुषार्थ बढ़ाने पर कर्म निर्जरा से उन्नति प्राप्त कर सप्तम गुणस्थानी महाव्रत धारकर वे मुनि बन उच्चकोटि का तप करते हैं। यह 14 गुणस्थानी व्यवस्था भी सैंधव प्रतीकों में अति सुंदर दर्शाई गई है । ध्यान से देखें तो केवली जिन १ २. 13 वें 14वें गुणस्थान पर तदभवी तीर्थकर जिन | के साथ ही हैं। 14वें गुणस्थन से पंचमगति है।
शेष व्यवस्था अन्य गुण स्थानों की 4, 5, 7, 12, 13, 14 वाली है। साधुओं व्दारा सर्प सीढ़ी का खेले जाने वाला खेल तथा उनकी उठान गिरान र आर्यिकाओं का कमिक भवों में आरोहण 1 दिगम्बरत्व से ही पुंसवेदी को तीर्थकरत्व १९. चतुर्थ गुणस्थानी श्रावक को ही तीर्थकर प्रकृति कर्मोपार्जन, प्रथम गुणस्थानी कुलाचरणी जिनभक्त का अनादिकाल से अंतहीन गठान में भ्रमण, आदि सारे जैनागमी सिध्दांत सैंधव लिपि ने सुंदरतम रीति से संजो कर रखे हैं।
तप व्दारा अष्टकर्मों के भी चार घातिया कर्म नष्ट करके ही भवघट तिरने की स्थिति रत्नत्रय से बनती है, को भी आश्चर्यजनक प्रस्तुति दी गई है। और तो और अष्टकर्मों का नाश चार शुक्लध्यानों से ही है को भी स हाथ से दर्शाया गया है। साधकों की उपशम A. क्षयोपशम A और क्षायिक स्थितियों का भी अंकन है जहां भाव तलछंट को छांटा है।
-गत्यादि मार्गणा स्थानैर विशेषतानां चतुर्दश गुणास्थानाना प्रमाण प्ररूपणमोघ निर्देशः । धवला,3/1,2,1/9/2 A -संखियो ओघोत्ति य गुणसण्णा स च मोहजोगभाव । गोम्मटसार जीवकाण्ड, 3/22 - -उक्कस्सणु भागेण सः आउव बंधे संजदासंजदेदिहेत्थिं गुणट्ठाणाणां गमण भवदो। धवला,12/4,2.7,19/20/13 -तस्य संवरस्य विभावनार्थ गुण्स्थान विभाग वचनं कियते । राजवार्तिक, 9/1/10/588/69 -लिंग देहाश्रितं दृष्टं देह एवात्मनो भवः,ण मुच्यते भवात्तस्मात्ते ये लिंगकृताग्रह । समाधि शतक, मूल, 87 90 -भावेण होइ णग्गो मिच्छत्ताइ य दोस चइउणं पच्छ दवेण मुणी पयडाडि लिंगं जिणाणाए। भाव पाहुड, 73 AP -रत्नत्रय भावनाए स्वात्मानं साध्यतीति साधुः । प्रवचनसार, तात्पर्यवृत्ति 2/345/1651
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