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तप के लिए तो अंतिम समुद्र / स्वयंभूरमण समुद्र के महामत्स्य जैसा सहनशील संहनन वज्र वृषभ नाराच संहनन , चाहिए और फिर उत्कृष्ट तप करके क्षायिक गुणस्थानोन्नति चाहिए जो बारहवें गुणस्थान के अरहंत पद तक पहुंचाए तब मोक्ष प्राप्ति तदभवी निश्चित हो जाती है। इसकी अभिव्यक्ति सैंधव प्रतीकों में अत्यंत सुंदर हुई हैं। * *
-तस्स मएसगदीएचेव तित्थयर कम्मस्स बंध पारंभो होदि, ण अण्णत्थेत्ति। धवला,8/3,38, -आर्हन्त्यकारण तीर्थकरत्वनाम | सर्वार्थ सिध्दि, 8/11/392/ -जस्स कम्मस्स उदएण जीवस्स तिलोग पूजा होदि तं तित्थयर णाम। धवला,6/1,9-1,30/67/
1 4 -सकलभुवनैकनाथस्तीर्थकरो वर्ण्यते मुनिवरिष्ठैः विधु धवल चामराणं तस्यस्याव्दै चतुःषष्टः । धवला,1/1,1,1/44/58 -पारध्द तित्थयर बंध भवादो तदियभवे तित्थयरसंत कम्मिया जीवाणं मोक्ख गमण णियमादो । धवला, 8/3.38/75/1
सामान्य संसारी जीव अष्ट कर्मों के जाल में फंसा अपने ही बोए कर्मों के फल भोगता कोध, मान, माया, लोभ की अनुभूति से रोता हंसता आत्मा को 16 कषायों और 9 नोकषायों व्दारा कसता, ही चला जाता है और कर्मों का घेरा बढ़कर उसका भवचक बढ़ा देता है।इसे सैंधव लिपि में स्पष्ट दर्शाया गया है। KXXX/& 000
उन अष्ट कर्मों में प्रधान मोहनीय कर्म होता है जो दो प्रकार का, दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय होता है। दर्शन मोहनीय के कारण वह सत्य नहीं देख पाता और 'मेरापने' के मिथ्या भाव में डूबा कषाय करता रहता है। वह कषाएं कोध,,मान, माया,लोभ सैंधव लिपि में त्यक्त चार बूंदों के रूप में दिखलाई गई हैं। : : इनसे उपजे आत रौर्द्र ध्यान दो बूंदों के रूप में, यथा| दिखते हैं जो राग व्देष उपजाते हैं । ज्ञानी के लिए इन्हें त्यागना आवश्यक है।
-सत्तु मित्त मणि पाहाण सुवण्ण मट्ठियासु राग देसाभावो समदा णाम | धवला, 8/3,41/84/16 -यत्सर्वद्रव्यसंदर्भे रागव्देष व्यपोहनं । आत्मतत्व निविष्टस्य तत्सामायिकमुच्यते । योगसार,/अ./5/470 -अकसायं तु चरित्तं कसायवसियो असंजदो होदि । मूलाचार, 182 :: -समता सर्व भूतेषु संयमे शुभ भावना। आतरौद्रपरित्यागस्तध्दि सामायिक व्रतम । पदमनंदि पंचविंशति, 6/8
-स्व शुध्दात्मानुभूतिबलेनार्त रौद्र परित्यागरूपं वा, समस्त सुख दुःखादि मध्यस्थ रूपं वा । द्रव्य संग्रह टीका, 35/147/71
दर्शन मोहनीय के हटते ही वह गुणस्थानोन्नति करता चतुर्थगुणस्थान में पहुंचता है और सम्यग्दृष्टि बन जाता है । उसके पास दो धर्मध्यान || होते हैं अतः आत्मकल्याणी सच्चे गुरु की शरण में पहुंचकर वह श्रावक र बन जाता है। यहां से ही वह अपने चारित्र मोहनीय कर्मों को कम से नष्ट करने हेतु स्वसंयम धारण के लिये गुरु सन्मुख नियम लेना प्रारंभ करता है। ये नियम पुरुषार्थ सहित वह धारण करता है जो आगे प्रतिमा धारण सहित बढ़ते जाते हैं । उठते उठते वह उच्च श्रावक बन जाता है कीX ब्रहमचारी, क्षुल्लक अथवा र ऐलक /आर्यिका और रत्नत्रय धारण करके पंचमगुण स्थानी MA हो जाता है। वह रत्नत्रयी बन चुके हैं और एकदेश / अणुव्रती हैं।
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