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________________ -विषयाशावशातीतो निरारम्भो अपरिग्रहः, ज्ञान ध्यान तपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते । रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 1/10 -खवणायं विलणिब्बियडि ण पुरिमण्डलेयट्ठा णाणि तवो णाम । धवला,8/5,4,26/61/5 वह तप छह बाहर और छह अंतरंग इस तरह बारह प्रकार का बतलाया गया है जो सैंधव संकेत भी बतलाते हैं। -दुविहो य तवाचारो बाहिर अब्भतरो मुणेयव्यो । एक्केक्को विछध्दा जधाकम्मं तं परुवेमो । मूलाचार, 345 BA -बारस विहेण तवसा णियाणरहियस्स णिज्जरा होदि। वेरग्गभावणादो णिरहंकारस्स णाणिस्स। कार्तिकेयानुप्रेक्षा,1020 -व्दादश विधं तपः तेनैव साध्यं शुध्दात्म स्वरूपे प्रतपनं विजयनं निश्चय तपश्च । द्रव्य संग्रह टीका, 57/228/11 -विसय कसाय विणिग्गह भावंकाउण झाण सिज्झीए। जो भावइ अप्पाणं तस्स तवं होदि णियमेण । बारस अणुवेक्खा, चरदि* -तस्माब्दीयं समुद्रेकादिच्छारोधस्तपो विदुः । बाहयं वाक्काय संभूतमान्तरम मानसं स्मृतं । मोक्षपंचाशत, 48 तप हेतु संयम, उत्साहमय पुरुषार्थ और दृढ़ता चाहिए क्योंकि शरीर का अपना धर्म और इंद्रियां हाथी सी प्रबल होती 'हैं दोनों पर नियंत्रण कर पाना अच्छे अच्छे वीरों को भी डिगा देता है । स्वयं लिया हुआ नियम थोड़ी सी चूक में टूट जाता है कितु गुरु के सम्मुख लिया गया छोटे से छोटा संकल्प गुरु एवं शिष्य दोनों पर अपना प्रभाव और दबाव रखता है। सैंधव संकेतों में संयम को भाले से और पुरुषार्थ को अर्ध धनुष से दर्शाया गया है। इसका चरम समाधिमरण /संथारा/सल्लेखना है । -संयममाराहंतेण तवो आराहियो हवे णियमा । आराहतेण तवं चारित्तं होइभयणिज्जं । भगवती आराधना मूल 6/3211 -तिण्णं रयणाण विभावट्ठ मिच्छाणिरोहो । धवला, 13/5,4,26/54/12 जीवन के चार पुरुषार्थ कहे गए हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । अर्थात धर्म से ही प्रभावित शेष तीन हैं और धर्म सबसे प्रधान और मूल है। धर्म अर्थात नैसर्गिक धारण सत्य है। -धर्मश्चार्थश्च कामश्रच मोक्षश्चेति महर्षिभि, पुरुषार्थी अयमुद्दिष्टश्चतुर्भेदः पुरातनैः। ज्ञानार्णव, 3/4. -धम्महं अत्थहं कम्महं वि एयह सयलहं मोक्खु ।उत्त्मुपभणहिं णाणि जिय अण्णे जेण ण सोक्खु । परमात्म प्रकाश , 2/3 -असुहा अत्था कामा य ....एओ चेवसुभो णवरि सव्वसोक्खायरो धम्मो । भगवती आराधना मूल,1813 )))) -पुंसो अर्थेषु चतुर्षु निश्चलतरो मोक्षः पर सत्सुखःशेषास्तव्दिपरीत धर्मकलिता हेया मुमुक्षोरतः । पदमनंदि पंचविंशति, 7/25 -सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः । तत्त्वार्थ सूत्र, 1/1 षट द्रव्य, सप्त तत्व, नौ पदार्थ ही मात्र नैसर्गिक हैं जिनमें जीव/मेरा अपना आत्मा हरेक के लिए स्व है शेष सब पर है। शाश्वत षटद्रव्यों से यह संपूर्ण संसार बना है जिसे त्रिलोक संस्थान कहा गया है ।इसके मध्य लोक में मात्र ढाई व्दीप के व्दीप समुद्रों में मनुष्य लोक है जिसमें मनुष्य का अस्तित्व बताया गया है और जहां से नर को मुक्ति तप व्दारा ही होती है। यही वह क्षेत्र है जहां पुरुषार्थ संभव है। ढाई व्दीप से बाहर क्षायिक सम्यक्त्व की उत्पत्ति नहीं कही गई है। -अढाइज्जादीवेसु दंसण मोहणीय कम्मस्स खवण माढवेदि त्ति णो सेसदीवेसु । धवला,6/1,9,8,11/244/2 तप मार्ग पुरुष स्त्री दोनों ही के लिए खुला है किंतु तीर्थकर प्रकृति कर्म का अर्जन मात्र नरभव से ही संभव है । मोक्षार्थी 172 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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