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जहां जिसने सुना दौड़ पड़ा कुण्डलपुर की ओर दर्शकों की भीड़ लग गई। बिंब का पत्थर गुलाबी लाल बलुआ परतदार शिला है। सारे ही प्राचीन जिन बिंब इसी पत्थर में अथवा दक्षिण भारत के ग्रेनाइट में दिखते हैं । यह बात भी सर्व विदित है। कि ऐसे पाषाण में एक बार परत में पानी घुसने पर परतें बहुत तेजी से खुलती हैं दो बार वही घटित हो चुकने पर संभावना यही थी कि वे परतें कभी भी बढ़कर बिंब की चेहरेवाली परत को सामने फेंक देतीं और वह पुरा धरोहर काल कवलित हो एक अतिशयी प्रकोप माना जाकर भुला दिया जाता जैसे कि आज अंजनेरी का पुरा जिन बिंब सड़क के किनारे उपेक्षित पड़ा है। अच्छा हुआ कि समय रहते भक्तों ने उसे चूने की चुनाई वाले प्राचीन जिनालय से निकालकर नव निर्माणाधीन जिनालय में बिना उसका पुरा वैभव पहचाने भी सुरक्षित करा कर जिन पूजकों पर उनकी अनमोल पुरा संपदा बचाने का गुरुतम उपकार किया। इस उत्तम कार्य के लिए उनसे न पूछे जाने के कारण कुछ लोगों का मान आहत हो गया जिससे रुष्ट हो उन्होंने विरोध दर्शाते उस उध्दार प्रकरण की सराहना के बजाय उसे विवाद बनाकर न्यायालय में बिना सचाई जाने ही पहुंचा दिया | सुरक्षा में भी उन्हें दोष ही दिखाई दिए। किंतु भारतीय ही नहीं विश्व पुरानिधि की सुरक्षा में यह सराहनीय कार्य भक्तों ने किया है। ऐसे पुरालिपि अंकित 12 जिन बिंब अब तक हमारी दृष्टि में सर्वेक्षण के व्दारा आ चुके हैं किंतु उनका उदघाटन करने में यहां इसलिए संकोच है कि कहीं वे भी बड़े बाबा की तरह ही भारतीय पुरातत्व विभाग व्दारा बेवजह किन्ही अहंकारियों की सनक का शिकार बनकर कानूनी उलझनों में उलझा न दिए जावें कि उन्हें मैंने यथोचित मान सम्मान से पूछा क्यों नहीं । वे सब नित्य पूजित जिनबिंब हैं बड़े बाबा प्रकरण में माननीय न्यायाविदों का निर्णय सुनकर ही अपनी अगली कृति में उन्हें प्रगट करूंगी।
इस संसार में कर्म जनित चतुर्गति के दुःखों से छुटकारा पाने ही तपस्वियों ने स्वसंयम से तप धारकर अपनी सहनशक्ति को हृदय में निर्मलता रखते हुए उन्नत किया जिसे सैंधव लिपि में भरपूर अभिव्यक्त किया गया है। इसे उत्तरकालीन सभी धर्मों ने थोड़े बहुत रूप में अपनाया कल्याणव्रत चक्रवर्ती ने अपनी पुस्तक इमर्जेंस ऑफ हिंदुइज्म में दर्शाया है कि यह हिंदु धर्म और उसकी ईश्वर संबंधी कल्पना मात्र पांचवीं शती ई.पू. की ही हैं अन्यथा पूर्व काल में मानव ही उस आत्मिक उच्चता को प्राप्त करता था. (अर्थात मनुष्य ही तीर्थंकर पद तप व्दारा पाता था) और यह हिंदुत्व जैनत्व से ही जन्मा एक दर्शन है ।
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- व्यवहारेण चतुर्गतिजनक कर्मोदयवशेनोर्ध्वधः स्तिर्यग्गति स्वभावः । द्रव्य संग्रह, टीका, 2/9/5 -जिस्से गइए आउअं बध्दं तत्त्येव चिएण उपत्ति त्ति | धवला 10 / 4,24/40/239/3
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- दुक्खहं कारणु मुणिवि जिय दव्वहं एहु सहाउ । होयवि मोक्ख्हं मग्गि लहु गम्मिजइ परलउ । परमात्म प्रकाश, 2/27
- गतिश्चतुर्भेदा नरकगतिस्तिर्यग्गतिर्मनुष्यगतिर्देवगतिरिति । सर्वार्थ सिध्दि, 2/6/ 159/2
इनसे अलग एक पंचम गति मोक्षदायी है, जो उर्ध्वगाति / सिध्दगति कहलाती है -
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-आदेसेण गदियणुवादेण अत्तिथ णिरयगदि तिरिक्खगदि मणुस्सगदि देवगदि सिध्दगदि चेदि षटण्डागम । 1/1,1/24/201 X * करे n ^ आई ^ ^ जिन अथवा जितन्द्रियों ने 28 मूल गुणों को धारकर 22 परीषह अत्यंत पुरुषार्थ उठाते हुए जय किए । अतः इसे वीर मार्ग और वीर धर्म पुकारा गया जिसकी उदघोषणा शार्दूल ने की। श्री वत्स की सील नंबर 306 इसे दर्शाती है। कायोत्सर्गी जिन के विषय मे जैनागम के सूत्र मेरा कुछ भी नहीं, यह तन भी नहीं दर्शाते हैं।
श्र
-समस्त बहिर्द्रव्येच्छा निवृत्ति लक्षण तपश्चरण । द्रव्य संग्रह 21 /63/4
- तवो विसय णिग्गहो जत्थ । नियमसार, 6/15 *
--कर्म क्षयार्थं तप्यत इति तपः । सर्वार्थ सिद्धि 9/6/412/11
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