________________
(तप मार्गी पंचपरमेष्ठी वीतरागी होने से कायोत्सर्ग लीन दिखते हैं । उनकी ध्यानस्थ मुद्रा ख्डगासन और पदमासन में सैंधव सीलों में भरपूर व्यक्त हुई है। इसका साम्य एलोरा गुफाओं के जिन मंदिर में दो प्राचीन अंकनों में स्पष्ट दिखाई देता है भले ही उन पर पुरातत्वज्ञों की दृष्टि कभी ना गई हो। __तप का मूल कारण चतुर्गति भ्रमण कराने वाले अष्ट कर्म जनित संसार को शेष करना है । वे चतुर्गतियां कॉस और स्वस्तिक के रूप में सैंधव अंकम में बारबार दिखलाई देती हैं । जहां कहीं भी ये स्वस्तिक शैलांकित दिखा है वहां वहां वह पुरा काल में जिनधर्म के होने का संकेत देता है । इतना ही नहीं चतुर्दिक आिवर्ति का एक ऐसा शैलांकन चित्र है जो जिन श्रमणों व्दारा पुरा काल में की गई तप सामायिक की घोषणा करता है। अन्य विशेष पुरा चिन्हों में दिगंबरत्व /मुनि लिंग तथा गुणस्थानोन्नति के अंकन भी वहां पुरा काल में जैनत्व होना दर्शाते हैं। कुबेर का दर्शाया जाना (महालक्ष्मी लैणी) , अष्टमंगल अंकनों का होना (कार्ला गुफाऐं), युगल चरणांकन, शार्दूल अथवा चक का होना मूल में जैनत्व की घोषणा करते हैं भले ही उन्हें बाद में अशोक के काल से बौध्दों ने भी अपना लिया । जिनत्व का मूल आधार अहिंसा है । आगमानुसार-अहिंसैव जगन्माता अहिंसैव पध्दति :। अहिंसैव गतिः साध्वी श्रीर हिंसैव शाश्वती । ज्ञानार्णव, 8/32 RI
सैंधव संकेत लिपि में इसे एक चौपाए के पैर को सीमांकित करके दर्शाया है जो बतलाता है कि किस प्रकार के पशुओं को सुरक्षा में रखकर पाला जाना चाहिए । वह हिंसा का संकेत नहीं था जैसा कि पुराविदों ने अब तक मान रखा है। वह पशु पालन का द्योतक है, लगभग वैसा ही जैसा महाव्रती को उनकी स्वसंयम की सीमाओं में दर्शाया गया है। ___जिनों" के अनुयायी, श्रध्दानी, समर्थक और सेवक जिनधर्मी/जैन कहलाते हैं जो समूचे पुरा भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड के 'अजनाभवर्ष ' अथवा भारतवर्ष में वेदपूर्व काल से ही अवस्थित थे। यही सैंधव प्रमाण भी दर्शाते हैं। जिनानुयायी जैन है। -जिनस्य संबंधीदं जिनेन प्रोक्तं वा जैनम । प्रवचनसार, तात्पर्य वृत्ति, 206 Mmma d अर्थात जैनत्व ही हमारे मानव समाज की मूल संस्कृति' थी और है। उसे खोकर हम मानवता सुरक्षित नहीं रख सकते।
जैनों के आराध्य नौ देव हैं - -अरहंत सिध्द साहु तिदयं जिणधम्म वयण पडिमाहु जिण णिलय इदिराए नवदेवता दितु मे बोहिं। रत्नकरण्ड श्रावकाचार.119/168 888
उज़लोकवासी देव, शासन देवी देवता रूप जिनालयों में अरहंतदेव की सेवा में सैंधव सीलों में भी दिखाई देते हैं जैसे कि आज के जिनालयों में। पुरा जिनबिंबों में भी वे वैसे ही दिखलाई देते हैं । आश्चर्य है कि पुराविदों एवं मूर्ति विज्ञानियों ने ऐसे जिन बिंबों को मध्ययुगीन कहकर उन्हें अनदेखा छोड़ दिया ठीक कुण्डलपुर के बड़े बाबा की तरह। जबकि उस जिन बिंब पर पुरालिपि अंकित है। कदाचित उन विशेषज्ञों का भी दोष नहीं है क्योंकि वह लिपि मात्र कैमरा पकड़ पाता है। कुण्डलपुर का वह पुरा कालीन जिनबिंब अब अपने नए आयतन में भक्तों व्दारा सुरक्षित कर लिया गया है इसी मान्यता के आधार पर कि वह एक अर्वाचीन मध्ययुगीन, नित्य पूजित जिन बिंब है । किंतु यह कार्य पुरा धरोहर के संरक्षण की दृष्टि से अत्यंत सराहनीय हुआ है। (चित्र) बिंब के सिर के पास ही दो दरारें अब स्पष्ट देखी जा सकती हैं जो बिंब के पुराने जिनायतन में दीवार में जड़े होने के कारण अदृष्ट थीं। पिछले वर्षों में दो बार उनमें पानी संभवतः पुरानी दीवार के पीने से, भरने से इतना रिसाव हुआ कि लोगों में इसे अतिशयमय अमिषक जानकर शोर मच गया।
170
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org