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________________ जैन अध्यात्म साहित्य और सैंधव संकेतों में साम्य भाषा की उत्पत्ति संबंधी कुछ विशेष उल्लेख जैन साहित्य में धवला ग्रंथ मे हैं और मूल णमोकार मंत्र संबंधी उल्लेख निबध्दमंगल नामक ग्रंथ में दिखलाई देता है । श्वेताम्बर आम्नाय के महानिशीथ सूत्र. अध्याय 5 में पंच मंगल सूत्र को भगवान वीर (महावीर) व्दारा रचा माना गया है। भगवती सूत्र (श्वे.) में भी उसे पाया गया है जहां णमो लोए सव्व साहूणं की जगह णमो बंभीए लिबीए (ब्राह्मी लिपि को नमस्कार) कहा गया है जो ऋषभजा ब्राह्मी के नाम से जुड़ी सैंधव लिपि की समकालीन अथवा उत्तरकालीन बैठती है । खारवेल की मूल गुफा के शिरो शिलालेख में भी "णमो (नमो नहीं) अरहंताणं । णमो सव सिधाणं" अंकित है जो उस काल की लिपि को दर्शाता है। उसी गुफा के नैसर्गिक भाग में छत पर भीमबैठिका जैसी शैली के शैल चित्रांकन भी दिखे हैं जो अब तक अनदेखे रहे हैं। पंचपरमेष्ठी का बीजाक्षर ९/ओंकार स्वर माना गया है जो सैंधव पुरा लिपि में तीन सांकेतिक रूपों में आया है। -ओं एकाक्षरं पंचपरमेष्ठिनायादिपदम । (द्रव्यसंग्रह टीका 49/207/11) यह दिव्य ध्वनि है जो मूल बीजाक्षर है। -छहवणवपयत्थे पंचट्ठीकायसत्ततच्चाणि । णाणाविहहेहि दिव्वझुणी भणइ भव्वाणं । तिल्लोय पण्णत्ति 4/905 भाषा की अभिव्यक्ति शब्दों से तो है किंतु शब्द के ही अर्थ क्षेत्र परिवर्तन से बदलते जाते हैं अतः आगमानुसार अर्थ ग्रहण करने की 5 विधियो में से संकेत एक भाव ग्रहण करने का निर्देश भी देती है । शब्द ध्वन्यात्मक भी हो सकता है और संकेतात्मक भी क्योंकि श्रुत शब्द प्रमाण तो है ही किंतु अगाध है । अक्षरों की सीमा से परे वह श्रुत ज्ञान है । अक्षर यों तो मात्र 64 माने हैं (33 व्यंजन +27 स्वर + 4 अयोगवाह) किंतु उनके संयोगों से बने शब्दों की गणना अति विशाल है इसी.लिए संकेतों को भी बहुत महत्व दिया गया है जो अट्ठारह भाषाओं और सात सौ कुभाषा स्वरूप व्दादशांगात्मक बीजपदों का अर्थ कर्ता है । -संखित्त सद्दरयणमणं तत्थावगम हेदू भूदाणेगलिंग संगयं बीज पदंणाम । तेसि मणेयणं दुब्बाल संगप्यणं अट्ठारसत्तसयभास कुभासा सरूवणं परूवाओ अट्ठकत्तारोणाम । धवला, 9/4,1,44/127/1 OI R S इस प्रकार जैनागम संकेत भाषा का समर्थक है और वह पध्दति आज भी दैनिक जैन पूजा में उसी रूप में प्रचलित है। अर्हत की महत्ता को ऋग्वेद ने भी स्वीकारा है क्योंकि अर्हत अथवा जिन परम्परा वेदपूर्वकालीन रही है। वह परंपरा आज भी जिन श्रमणों व्दारा जीवंत है । आगमानुसार हम पाते हैं: - -जोइंदिये जिणित्ता णाणसहावाधिअं मुणदि आदं। तं खलु जिदिदियं ते भणंति जे णिच्छिदा साहू। सर्वार्थसिध्दि 31 -जिद कोह माण माया जिदा लोह तेण ते जिणा होति । मूलाचार, 261 :: :: :: * X : -अनेक जन्माटवीप्रापणहेतून समस्तमोहरागव्देषादीन जयतीति जिन : | नियमसार, 1 -खविय घाइकम्मा सयलजिणा । के ते। अरहंत सिध्दा । अवरे आयरिय उवज्झाय साहु देसजिणा तिव्व कसाइंदिय मोह विजया दो । धवला, 9/4.1.1/10/70 -सकल जिनस्य भगवत्सतीर्थधिनाथस्य पादपद,मोपपेविनो जैनाः परमार्थतो गणधरदेवादयः इत्यर्थः । तात्पर्य वृत्ति, 139 169 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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