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जैन पुरा-कथाकोष से साम्य डॉ. पूर्णानंद वर्मा ने बेहद निर्भीकता और सहजता से स्वीकारा है कि बिना हिंदु बने एक जैनी श्रेष्ठ जैनी तो बन सकता है परन्तु बिना जैन संहिता को अपनाये एक अच्छा हिन्दु नहीं बना जा सकता । अर्थात् हिन्दुत्व की भूमिका का मूल आधार जैनत्व है। भारत की मूल संस्कृति को "हिन्दु" संस्कृति पुकारने वालों को भी श्री वर्मा की यह स्वीकृति मान्य होनी चाहिए। भारतीय संस्कृति में सिन्धुघाटी सभ्यता जिस तरह रची पची है उसे कुछ विद्वान द्रविड़ प्रभावी पुकारते हैं तो कुछ वेद प्रभावी, कुछ उसे गायत्री पाठ प्रभावी और कुछ उसे आर्य प्रभावी बतलाते हैं। किन्तु सभी उसे खींचतान कर बैठाने का प्रयास करते हैं जबकि अनभिज्ञ विद्वानों को जैन पुरा-अध्यात्म कथाओं से साम्य इसलिए दिख नहीं सका क्योंकि उन्होने उसे कभी जाना ही नहीं। प्राप्त जैन संदर्भानुसार आचार्य पूज्यपाद के शिष्य वजनन्दिनन्दि ने विक्रम 526 में द्रविड़ संघ की स्थापना की थी जिसके समर्थक/अनुयायी द्रविड़ कहलाने लगे। मूल में तो वह एक श्रमण संघ ही था जिसने उपसर्गो के बावजूद संस्कृति सहेजी। जैन कथाकोष तथा जैन साहित्य के अनेक प्रसंग सैंधव लिपि अभिलेखों में दिखलाई पड़ते हैं जबकि अन्य धर्मकथाओं के नहीं। जैसे कि - १) वेदपूर्व सैन एस क्याओं में जिन युगल बंधुओं के तप का वर्णन आता है उनका वर्णन हम कुलभूषण-देशमूषण मुनियो के
संदर्भ में कर ही आये हैं। सैंधव लिपि में ये बार बार झलकते हैं । (2) भरत-बाहुबली कथा जैन साहित्य में अपना विशेष स्थान रखती है, कि मल्लयुध्द में बाहुबलि ने भरत को हराया था ।
रत-आदिनाथ वर्णन यों है कि जब आदिनाथ वन में 4000 तपियों के साथ तपलीन थे तब भरत उनके पूजन को पहुंचे (4) एक विशेष वर्णन स्वयंभूरमण समुद्र के महामत्स्य और तंदुल मत्स्य का रोचक सामने आता है जिसमें महामत्स्य के वज
वृषभनाराच संहनन के कारण उसकी सहन क्षमता अगाध हो जाती है, किन्तु हिंसक प्रवृत्ति के कारण वह रौरव नरकगामी होता है। उस जैसे संहनन के धारक मनुष्य यदि तीर्थकर प्रकृति का बंध प्राप्त करते हैं तो तदभवी मोक्षगामी होते हैं। जैनपुरा कथा कोष में इनका वर्णन भरपूर मिलता है। आधुनिक वैज्ञानिक रहस्यों ने भी उद्घाटित किया है कि महामच्छों का संहनन
उग्र नैसर्गिक आपदायें न केवल झेल लेता है बल्कि चुनिंदा क्षेत्रों में मत्स्यों का जमाव और मरण भी देखा जाता है। (5) चिली में पक्षियों का सामूहिक मृत्यु आमंत्रण सामान्य नैसर्गिक प्रक्रियाएं नहीं अति विशेष अवलोकन कहे जा सकते हैं। साथ
ही उनके संज्ञित्व को दर्शाते हैं। सैंधव लिपि ने भी पक्षियों को उन्हीं तप और समाधिमरण के संदर्भो में दिखलाया है। (6) एक कथा के अनुसार कुत्ते को मृत्यु के समय णमोकार मंत्र सुनाये जाने पर उसे देवगति प्राप्त हुई थी, वर्णन मिलता है। (7) इसी प्रकार शार्दूल का जैनत्व से जुड़ाव न केवल सैंधव सीलों में बल्कि वर्तमान के जैन संदर्भो में भी भरपूर मिलता है।
खरगोश, कछुवा, मोर, बतख, चकवा, कबूतर, मुर्गा, तोता, मैना बर्र, बिच्छु, मक्खी, तितली, सर्प, डायनासर, (सरीसृप) आदि का वर्णन सैंधव सीलों में किसी न किसी कथानक से जुड़ा दिखता है। अन्य अनेक प्राणी, तीर्थकरों के लांछन स्वरूप भी
दिखलाई देते है। (8) अष्टापद नामक प्राणी जो किसी भी तरह पटके जाने पर अपने चार पैरों पर खड़ा रहा आता है और परास्त नहीं होता. - एक वीतरागी साधु की दृढ़ता को भी वैसा ही माना गया है, सो भी सैंधव अंकन में बार बार दिखता है। (७) सेठ सुदर्शन की कहानी "चिर ब्रह्म तत्व का" द्योतक बनती भी दिखलाई देती है। (10) ऊँ का स्पष्ट दर्शन भारतीय दर्शन का स्तंभ है जिसे उत्तरकालीन सभी भारतीय धर्मों ने अपनाया तो, किन्तु उसकी सैंधव
झलक मात्र जैन पुराअंकनों तथा पाण्डुलिपियों में दिखती है। उस ऊँ की सत्ता को और महत्ता को सबने स्वीकारा, है।
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