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________________ संभवतः ब्रह्माणीदेवी का मंदिर ऋषभजा ब्राह्मी के तपस्विनी आर्यिका होने का द्योतक है। यहीं सुंदर सरस्वती की मूर्ति भी प्राप्त हुई है। अनेक नारी मुद्राऐं नमस्कार और योगासन में प्राप्त हुई हैं । मेवाड़ के कुछ स्थलों पर हुए उत्खननों में भी हड़प्पा पूर्व पुरा सामग्री के प्राप्त होने के संकेत मिले हैं। लिपि अंकन लगभग सारे ही पात्रों पर बहुतायत से है जो कि सैंधव लिपि से ही मेल रखती है। अनेक पुरालिपि विशेषज्ञों ने उसे पढ़ने का प्रयास किया है किंतु उन्हें सफलता नहीं मिल सकी है। सन् 1856 में जब लाहौर कराची रेल लाइन बिछ रही थी तब खुदाई के समय ईटों के टुकड़ों के दिखने से अनुमान लगा (क्योकि 1826 में चार्ल्स मेसन द्वारा पूर्व में ही घोषणा की गई थी) कि वहाँ हड़प्पा का अवशेष टीला था। उन ईटों के टुकड़ों से जनरल एलेक्जेंडर कनिंघम ने स्थल निरीक्षण करके बतलाया कि वह तो विशाल पुरावशेष था जहाँ से लोग मकान बनाने के लिए पकी ईंटें उठा-उठा ले जाते थे। 1921 से वहाँ सर जान मार्शल के निर्देशन में उत्खनन प्रारंभ हुआ जो आठ वर्ष चला । जो अनपेक्षित पुरावशेष प्राप्त हुए उन्हें सहेजकर श्री दयाराम साहनी द्वारा अध्ययन किया गया। 1922 में डॉ. राखालदास बनर्जी ने सिंधु नदी के तट पर एक नए टीले मोहन्जोदड़ा को खोज निकाला । वहाँ से भी हड़प्पा जैसी ही पुरावशेष सामग्री प्राप्त हुई । 1922-1930 तक मोहन्जोदड़ो का उत्खनन चला और 1931 में वह रुक गया किंतु भारत पाकिस्तान विभाजन के बाद 1950 में मार्टिनर व्हीलर के निर्देशन में उसे पुनः प्रारंभ किया गया । जॉन एफ डेल्स ने 1963-64 में पुनः उत्खनन कराया । इस तरह काम प्रगति पर रहा और भरपूर तथ्य प्रकाश में आए । ई. जे. मैके ने 1935-36 में चानूदाड़ों नामक स्थान पर उत्खनन कराया । बड़ा आश्चर्य माना गया, कि उस सभ्यता का विस्तार उत्तर से दक्षिण 1400 कि. मी. और पूर्व से पश्चिम 1600 कि. मी. निकला । वह बलूचिस्तान, ईरान, तक भी फैला था । इधर भारत में भी थोड़े बहुत उत्खनन हुए और यहाँ भी उसी सभ्यता का विस्तार मिला । उसमें सबसे महत्वपूर्ण नग्न पुरुष के गुलाबी पत्थर के धड़ थे जो कायोत्सर्गी मुद्रा से साम्य रखते हैं (चित्र)। वैसे ही धड़ मथुरा कंकाली टीला तथा पटना लोहानीपुर से प्राप्त हुए थे । वे सभी धड़ अपने आप में जिस संस्कृति और सभ्यता की उद्घोषणा करते थे उसे उस समय अनेक पुराविदों ने "जैन संस्कृति" से सम्बंधित बतलाया । श्री रामप्रसाद चंद्रा, प्राणनाथ विद्यालंकार, आर. डी. बैनर्जी आदि अनेक पुराविदों ने उन्हें स्पष्ट रूप से जैन मुद्राएं घोषित करने के संकेत दिए परन्तु पुराविदों की भीड़ उस पर मौन हो गई । जो सीलें और मृद पात्रों के अवशेष मिले थे उन पर अंकित लिपि को सभी ने अपने-अपने तरीके से पढ़ने के प्रयास किए । वो सारे अंकन आदि से अंत तक सही पूछा जाए तो श्रमण जैन सिद्धांतों की मौन भाषा में उपदेश हैं । मुनि विद्यानंद तथा अनेक पुराविदों के स्पष्ट अभिमतों के बाद भी की गई उपेक्षा समझ से परे है। अर्थ और परिश्रम तो व्यर्थ गए ही। कुछेक तो अत्यंत नए अंकन हैं जो अब तक भी किसी ने नहीं देखे पहचाने हैं। उन्हें सही अंकित कर लेना भी अपने आप में बहुत बड़ी उपलब्धि और विशेषता मानी जाना चाहिए। पूरी शताब्दी बीत गई । किंतु अनभिज्ञ विद्वान उनको पढ़ने का प्रयास वैदिक और गायत्री मंत्रों के आधार पर करते हुए समय खोते रहे। सभी का बहाना था कि कोई कुंजी प्राप्त ना होने से उन्हें उसे ब्राह्मी के आधार से पढ़ना पड़ रहा है जबकि वह मात्र बहाना था । भारत की प्रचीन तम/पुरा संस्कृति में जैनत्व लगातार अवस्थित रहा फिर भी उसको उपेक्षित किया गया। यह बात समझ में आना कठिन है। ब्राह्मी ने उस पुरालिपि के 27 अक्षर अवश्य लिए हैं किन्तु नातिन भाषा के आधार पर नानी भाषा के हृदय की गहराई को आंकना भ्रामक होगा । उस पुरालिपि की प्रथम बेटी थी मूल प्राकृत जिसकी बेटी ब्राह्मी हुई । इसे हम अब आगे देखेंगे । 165 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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