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2: विन्ध्य क्षेत्र-गंगा के मैदानी भाग से मध्यप्रदेश तक के बांदा, सीधी, कोलडिहवा, पंचोह, महमढ़ा, इन्दारी, बेलाधारी एवं कुनझुन क्षेत्र हैं, जहाँ उत्खनन 1969-70, 77-76', 77-78 में कमशः चला । यहाँ से प्राप्त मृद भाण्डों की सुंदरता, टोंटी युक्त कटोरे, घड़े, तश्तरियाँ विशेष रहीं । पशुओं के लिए बांसों से बना दरवाजेमय बाड़ा, मिट्टी के बर्तन में रखे हुए तथा जले हुए अनाज के दाने आदि C14 अध्ययन द्वारा 4440-4530 ई. पू. के आंके गए हैं । 3: दक्षिण भारत-चिताल दुर्ग (ब्रह्मगिरि), बेलारी (संगठनकल्ल), रायचूर (टी. नरसीपुर, पिक्लीहल, मास्की), धारवाड़ (हल्लूर).. मैसूर (हेम्मिगे), बीजापुर (तेरदल), गुलबर्गा (कोटेकल), कर्नाटक (अरकोट) तमिलनाडु आदि में अनेक स्थलों पर खुदाई की गई। यहाँ भी अन्य सामग्री के साथ लिपि पुते मकानों के फर्श और चना, मूंग, रागी, कुलकी प्राप्त हुए। अध्ययन से सामग्री का काल 2500-1000 ई. पू. का प्राप्त हुआ । किंतु अलचिन अलचिन के अनुसार मेहरगढ़ (3500 ई. पू.) से प्राप्त सामग्री की तुलना में यहाँ की सामग्री अधिक प्राचीन प्रतीत होती है । इसलिए वी. डी. कृष्णस्वामी एवं वी. के. थापर ने इस संस्कृति की उत्पत्ति दक्षिण भारत से मानी है । 4 : मध्य गंगाघाटी तथा गंगा के कछार में पुरावशेषों की भरमार दिखती है जहां उत्खनन अधूरे पड़े हैं। 5: मध्य पूर्व क्षेत्र-इनमें गंगा का कछार, बिहार, उड़ीसा (सिंहभूमि) का इलाका विशेष हैं जहाँ अन्य सामग्री के साथ गेहूँ, जौ, मूंग, मसूर आदि के साथ धान की प्राप्ति वहाँ कृषि का उन्नत संकेत देती है । C14 अध्ययन से इसे 2400-2500 ई. पू. आंका गया है। 8 : पूर्वोत्तर भारत-आसाम, नागालैंड, मणीपुर, मिजोरम, अरूणाचल प्रदेश, सिक्किम, के क्षेत्र इसके अंतर्गत लिए गए। छोटे-छोटे उत्खननों से लगभग वही सामग्री बसूले, छैनी, हथौड़े, सिल लोढ़े आदि, भारतीय संस्कृति के प्रतिपादक प्राप्त हुए हैं।
रफीक मुगल के अनुसार इसके उत्तर कालीन प्राक् हड़प्पा संस्कृति मानी गई है जो हड़प्पा मोहन्जोदड़ो से कदाचित् पूर्वकाल में समृद्ध रही किंतु अलचिन दम्पत्ति उसे प्रारंभिक सैंधव ही मानते हैं। इनके अंतर्गत मुंडीगाक, देहमोरासी, (घुण्डई अफगानिस्तान में) नाल, किलेमोहम्मद, दंवसादात, पेरिवानो घुण्डई, अंजीरा, सियाह दम्ब, नून्दरा, कुल्ली, मेही, पीराक दम्ब, मेहरगढ़, आम्री, कोट दीजी, हड़प्पा और कालीबंगा आते हैं । इनमें से कुछ क्वेटा संस्कृति वाले कहलाते हैं जहां से प्राप्त पुरावशेषों में विशेष प्रकार के गुलाबी लिए मृद पात्रों पर काले सफेद रंग का चित्रण मिला है । सारे चित्र ज्यामिती और कलात्मक हैं जिनमें हरिण, बेल बूटे अंकित हैं। आम्री, कोटदीजी, झौव, कालीबंगा की कला की अपनी-अपनी विशेषताऐं हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण सांड़ का सुडौल अंकन है। कालीबंगा से प्राप्त मृद पात्रों पर पेड़, पौधे, मछली, बतख, तितली, हरिण, बकरे.. सांड़, बिच्छु एवं त्रिकोण हैं। यहाँ के पुरानगर की नाली युक्त सड़कों की आवासीय योजना, दीवारों के अवशेष, भवन, प्रस्तर सामग्री, धातु प्रयोग, चूल्हे, भट्टियाँ, आभूषण सभी परिष्कृत जीवन प्रणाली दर्शाते हैं। वाणिज्य के प्रतीक बांट, मुद्राऐं, आवागमन के साधन के साथव्यापार का रहस्य भी खुला है जिसमें उत्पादित सामग्री का विनिमय अवश्य रहा दिखता है।
धार्मिक दशा का ज्ञान उत्खनन से प्राप्त विभिन्न मृद मूर्तियों, जिनमें माता प्रधान है मिलता है। श्रृंगी देव पर्वत पर स्थित पुरुष है जिनमें अनेक नाग युक्त देवी मूर्तियां भी हैं जो किसी नाग पूजकों का भान कराती हैं । अनेक बांटों को पूर्वाग्रहवशात शिवलिंग और योनि माना गया है जिसमें अनेक पुराविदों तथा कल्याणब्रत चक्रवर्ती जैसे विव्दानों व्दारा असहमति है।
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