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बने पात्रों का माना गया है जिनमें कटोरे लाल रंग के तथा नुकीले औजार भाला तीर आदि बने जिसे कांति युग (Paleolithic से Meso और Neolithic revolution ) पुकारा गया है (मखौली लगते हैं !) आगे तब उसने खेती की, मिट्टी के बर्तन बनाए और ईटों के आवास, कुऐं उद्योग आदि । पुराविदों के अनुसार गुफाओं में रहने वाला आखेटी मानव अब कृषि के आश्रित होकर बस्तियों में रहना चाहता था । ये बहुत बड़ी कांति थी अतः इसे उसने कांति युग पुकारा है। जबकि शैलाश्रयों में अंकित वे चित्र मात्र आखेटी और भागते पशुओं के ही नहीं कलात्मक जियामिती से अंतहीन भटकान और अध्यात्म के भी हैं। भीम बैठिका एवं हाथी गुम्फा के शैल चित्र इसके प्रमाण दर्शाते हैं किंतु वैसे ही प्रमाण खारवेल की गुफा के अनदेखे कर दिए गए है।
उत्तर पुरा पाषाण कालीन संस्कृति के अवशेष आसाम (गारोहिल), बिहार (पलामू क्षेत्र), उड़ीसा (इंद्रावती घाटी), उत्तर प्रदेश (बेलन घाटी, बरियारी बांदा क्षेत्र), मध्यप्रदेश (बैनगंगा, बाजनेर, भीमबैठिका, सोनघाटी), छत्तीसगढ़ (महानदी क्षेत्र), राजस्थान (बुधा पुष्कर क्षेत्र). महाराष्ट्र (प्रवरा नदी, पाटने, इनामगांव, भाकट क्षेत्र), आन्ध्रप्रदेश (नागार्जुन, कुर्नूल, रेनीगुण्टा, कडप्पा, पलेरुघाटी), कर्नाटक (सालबड़गी, मेराल भावी क्षेत्र) आदि में प्राप्त हुए हैं।
मध्य पाषाण कालीन पुरा स्थलों पर मानव सभ्यता के अवशेष ढूंढ़ने के लिए उत्खनन किए गए और लगभग 30 स्थानों में श्री बी. एन. मिश्र के अनुसार पुरा पाषाण संस्कृति के अवशेष मिले । उत्कृष्ट मध्य पाषाण कालीन संस्कृति के पुरा स्थलों में चित्रकूट क्षेत्र, बस्तर, जगदलपुर, कोटराकूट, उड़ीसा (महानदी क्षेत्र), रायपुर, बिलासपुर आदि विशेष हैं। आश्चर्य की बात है कि इन पुराविदों को ऐसी एक भी सामग्री प्राप्त नहीं हुई कि ऊँचे वृक्षों से फल तोड़ने अथवा पालतू पशुओं के लिए उन्हें पत्ती जुटाने का कोई भी साधन प्राप्त हुआ हो यथा लग्गी, बांस, हंसिए आदि। कदाचित् उनका ध्यान आखेटी जीवन की ओर अधिक तथा मानव की नैसर्गिक प्रवृत्तियों की ओर उपेक्षामय रहा। एक ओर तो पुराविद् गेहूं, मटर, जौ, मसूर के दानों की उपस्थिति से कृषि की ओर संकेत करते हैं दूसरी ओर द्विछिद्र युक्त ऐरो हेड और गोले सिल लोढ़े एवं तकुए, तीसरी ओर पात्रों में कटोरे, सकरे मुंह के घड़े, लाल व चटक काले रंग के मृद पात्र (थालियां, प्लेटें भी हैं, जिन्हें लगभग 2373 "ई. पू." का मानते हैं ।
पाषाणीय कांति में अन्न भण्डारन की शुरूआत हो गई थी जिसके लिए उपयुक्त मृद भाण्ड एवं कृषि, पशुपालन, नदियों के किनारे, झरनों के आसपास तथा कुंओं के द्वारा बस्तियां बसा कर दिखाई दिया है। संभवतः ऐसी बस्तियां अनेक बार बसीं और प्राकृतिक आपदाओं में उजड़ी होंगी । पुराविदों की दृष्टि में तब मानव गुफाओं से उतरकर मैदानों में आया होगा किंतु हमें ऐसा प्रतीत नहीं होता क्योकि गुफाओं और शैलांकनों से कुछ भिन्न संकेत मिलते हैं। विदेशी विद्वानों (बेडवुड़, बिन्फोर्ड) को भारतीय सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य का सही ज्ञान ना होने से ऐसी भ्रांतियां स्वाभाविक थीं। खाद्य उत्पादन, मृद भाण्ड, वस्त्रों, जेवरों का निर्माण स्थाई निवास, हस्त उद्योग आदि कुछ ऐसे आधार हैं जो पुराविदों के अनुमानों को चुनौती देते प्रश्न खड़े करते हैं। कुम्हार का चाक, कुल्हाड़ी, बसूला, रुखानी, छिद्रित सिरे वाले हथियार, हथौड़ा आदि के साथ सिल लोढ़ा, ओखल मूसल, मानव के परिष्कृत जीवन की झांकी देते हैं । वह जीवन आज भी गांवों में प्रचलित है | मानव विकास के गहन अवलोकन एवं अध्ययन हेतु उन अवशेषों को क्षेत्रीय आधार पर 6 भागों में जयनारायण पाण्डेय ने बांटा हैं:1 : उत्तरी क्षेत्र-बुर्जहोम, मार्तक एवं गुफकरार (1962.63) । बुर्जहोम (झेलम) में 1959-1964 उत्खनन हुआ जो काल दृष्टि से 2375 ई. पू. से 1700 ई. पू. का है (1962-63)। बुर्जहोम से प्राप्त सींग युक्त बैल का चित्रण तथा कुछ पिन लगे शीर्ष इस बात का संकेत देते हैं कि कला भी उस काल में काफी उन्नत थी। अलचिन एवं अलचिन के अनुसार वह संपन्न समाज का परिचय देते हैं ।
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