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________________ श्री वाकणकर तो भीमबैठिका के शैल चित्रों को 10,000 से 90000 वर्ष तक का प्राचीन ठहराना चाहते हैं। लौहयुग के बाद के तथाकथित "ताम्रयुग" का अस्तित्व भी हमें संभवत: ना मिलता किंतु मुद्राओं की प्राप्ति से इस पर हमें भी सोचने को राह मिली । राजस्थान के बयाना की मुद्रानिधियां और गंगाघाटी से प्राप्त ताम्रनिधि ऐसी ही खोज का उदाहरण हैं। धार्मिक ग्रंथों में वर्णित कुरुक्षेत्र, अहिच्छित्र, कम्पिला, हस्तिनापुर, द्वारका, अयोध्या, चित्रकूट आदि पहचान में आए । आगन्तुकों की डायरियों से (फाह्ययान, व्हेन्सांग ) भी कनिंघम ने निर्देश लेकर जगहों की सार्थक खोजें की । पाषाण युग के अध्येता लगभग संपूर्ण भारत में उस सभ्यता का विस्तार दर्शाते हैं जिसमें पाषाण के पेबल (लुढ़ियों) से बने औजार एकधारी और दुधारी प्रयोग में लाए जाते थे । हाल ही में घोषित महादेवन व्दारा चर्चित एक कूटक (देखें चित्र) भी तमिल नाडु के एक शिक्षक को खुदाई में प्राप्त हुआ है। उस काल की सभ्यता को दक्षिण भारत की अनेक नदियों के किनारे तथा गुफाओं में देखा गया है, किंतु विचारने का विषय है कि एक सुनामी जैसा तूफान ही संपन्न आधुनिक संसार को 10' नीचे मिट्टी की परतों में दबाने और पेबल बनाने में सामर्थवान होता है तब नैसर्गिक आपदाओं के चलते कितनी ही सभ्यताऐं ना आई और मिटी होंगी इसे काल परिधि में बांधना भ्रामक भी है और असंभव भी । दक्षिणी पठार लंबे काल तक रुक रुक कर लावा फेंकता रहा है। महाराष्ट्र के कई स्थलों पर लावा की राख के नीचे (Volcanic ash) भी पुरा पाषाण कालीन उपकरण प्राप्त हुए हैं जो अल्चिन द्वारा लगभग 1.4 मिलियन (14 लाख ) वर्ष पूर्व के माने गए हैं अर्थात् मानव अस्तित्व उस पुरा प्राचीन काल में भी था । वह भी कदाचित् अपनी विभिन्न स्थितियों में रहा होगा । कुर्नूल क्षेत्र के चूल्हे आग का आविष्कार उस काल में भी सिद्ध करते हैं। काश्मीर और राजस्थान में भी ऐसी संस्कृति के पुरा अवशेष उपलब्ध हुए हैं। मनुष्य के साथ-साथ तब पशु भी भरपूर जीवित रहे हैं। वृक्षों की तरह पशुओं के जीवाश्म भी प्राप्त हुए हैं। कुर्नूल से प्राप्त उपकरणों के साथ-साथ बिल्ली, नेवला, चमगादड़, गिलहरी, चूहे, खरगोश, सूअर, लंगूर, हिरण, नीलगाय, गाय, बैल, शेर, चीते, गधा, भैंस, गेण्डा आदि के जीवाश्म (Fossils) प्राप्त हुए हैं [ आश्चर्य कि मनुष्य का फॉसिल प्राप्त नहीं हुआ ] बेलनधारी से इसी प्रकार गाय, बैल, हरिण, भेड़, बकरी दरियाई घोड़ा एवं हाथी के जीवाश्म प्राप्त हुए हैं। अर्थात् वे सब उस पाषाण काल में भी उसी प्रकार थे जैसे कि आज बिना परिवर्तन हुए। आश्चर्य है कि उस काल में भी आदि मानव के खाद्य पदार्थों में चौकी, माण्डव से चावल के दाने मिट्टी के टुकड़े में फंसे प्राप्त हुए हैं। गांधार में चूल्हों की प्राप्ति है जो स्पष्ट करा देते हैं कि मानव तब भी कृषि आश्रित चावल तथा अन्य धान्य उगाता पकाता रहा है और अपनी नैसर्गिक प्रवृत्ति के अनुसार सिल लोढ़ों का उपयोग करते हुए शाकाहारी रहा है। भारत को बर्बर और जंगली दर्शाने वाले पुराविद् जो भी दलीलें दें यह सिध्द है कि पाषाण युग में भी मनुष्य अपना अस्तित्व कृषक रूप में स्थापित कर देता है। राजस्थान और गुजरात के बीच में डायनासर के अण्डों के जीवाश्म ही पशुपालन दर्शा देते हैं कि कभी उस क्षेत्र में बेहद हरियाली रही किंतु पुराविदों ने काल को हिम युग फिर पाषाण युग में बांटते हुए पाषाण युग को भूधरा बनावट के युग से दो युगों, मध्य पाषाण और उत्तर पाषाण युग में बांट दिया है। उसे भूधरा युग इसलिए दर्शाना पड़ा कि उसके विचार में कुदरती शाकाहारी एनाटामी फीजियोलॉजी के बाबजूद मानव ने आहार हेतु अनुमानित आखेट किया होगा ! पशु पालन किया होगा और फिर खेती की ओर प्रवृत्त हुआ होगा जिसे वह मीसोलीधिक अथवा मध्य पाषाण युग पुकारते हैं (कारलाइल, जी. आर. इन्टर बी. एन. मिश्र) जब शैलाश्रयों में न केवल शैल चित्र बल्कि कुछ उपकरणों के अवशेष भी प्राप्त हुए। ऐसे मृद भाण्ड श्री आर बी गौशी ने मध्य पाषाण युगीन बतलाए हैं जो लगभग 29 जगहों से प्राप्त हुए हैं। उसके बाद के विकास का युग चाक पर Jain Education International 162 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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