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लताओं के मंडपों में सागौन के पत्तों का वितान कुछ लकड़ी की थुनियों पर आज भी निरापद आश्रय दे देता है जिसे कटाई के लिए निकलने वाले “चैतुए" अब भी अपनाते हैं । भारत सदैव से ही कृषि प्रधान देश रहा है जहाँ जलवायु को देखते हुए कभी भी अट्टालिकाओं की आवश्यकता नहीं रही। समृद्धि के साथ यहाँ “वैराग्य" भावना प्रधान रही है। कथानकों में ही मानें तो रामायण, महाभारत काल में भी जहाँ सम्राट और साम्राज्य थे, उनके विमान जैसे आवागमन के साधन थे तब भी ऋषि मुनि और तपोवन थे। शबरी और निषाद जैसे आदिवासी थे । आज भी बस्तर के अबूझमाड़ में पाषाण युगीन सभ्यता जीवंत है। छिंदवाड़े के तांबिया/पातालकोट में वह जीवन जिया जा रहा है। पुरातत्त्व में संस्कृति का बहुत महत्त्व है जिसे वर्तमान में नष्ट करने का अत्यंत विस्तार से प्रयास और प्रभाव जारी है । ऐसे में जैन संस्कृति बहुत हद तक सुरक्षित सी दीखती है (तो श्रमणों द्वारा)। आरंभ में पुरातत्त्व सतही अवलोकनों पर ही निर्भर करता था । सर मार्टिनर व्हीलर ने भू तत्त्व के स्तरीकरण द्वारा उत्खनन के सर्वेक्षण का महत्त्व सामने लाकर भू उत्खननों द्वारा सर्वेक्षण को प्रधानता दी है।
पिट्ट राइवर्स, डे तेरा, पैटरसन, ज्वोइनर आदि ने अपने-अपने क्षेत्रों में कार्य किया और सांकलिया ने नए पुरातत्व को रूप दिया। जिसमें भू-गर्भ शास्त्र, रसायन शास्त्र, भू आकृति विज्ञान, मृदा विश्लेषण विज्ञान, नृतत्व विज्ञान, पुराप्राणि एवं पुरा वनस्पति विज्ञानं के साथ-साथ प्राच्य संस्कृतियों को भी महत्त्व दिया । सैंधव लिपि और प्रतीकों को आद्य इतिहास के अंतर्गत माना जाने लगा । प्रागैतिहासिक संस्कृति के साथ-साथ आद्य ऐतिहासिक सैंधव संस्कृति और पुरापाषाण कालीन हड़प्पा संस्कृति मानी जाने लगी, किन्तु आश्चर्य है कि इन सभी तथा कथित संस्कृतियों में "जैन श्रमण संस्कृति" की अमिट छाप दिखाई देती है । चूंकि हमारे पुराविद् अपनी पूर्व कुंठाओं के कारण उससे परिचित नही हैं अतः वह उनकी दृष्टि से चूक जाती है । कसूर उनका भी नहीं है । हमारे मान्यवान् न्यायविद् और नेता भी अपनी कुंठाओं के कारण खींचतान करके जैन धर्म को उसकी स्वतंत्र सत्ता का ना मानकर "हिंदू" की छाप लगाना चाहते हैं । ऐसा करते हुए वे जैन संस्कृति की अनमोल स्वतंत्र परंपराओं को दूर अंधियारे कोने में फेंककर उनसे हमेशा के लिए अपना ध्यान हटा लेना चाहते हैं । और फिर लड़खडाकर सैंधव युगीन सभ्यता और संस्कृति को पकड़ना चाहते हैं जो उन्हें तीन काल में भी उपलब्ध नहीं होगी क्योंकि उनकी ऐनक तो भ्रमित है ।
__ "पाषाण युग" के बाद जिस "लौह युग" को प्रधानता दी जाती है उससे भी अलग एक "चक्रयुग" दिखलाई पड़ता है। जिसमें काष्ठ और लोह दोनों ही साथ-साथ हैं। उस चक युग का अस्तित्व ऋषभ काल में भी था (जिसे हिंदू खींचतान कर 'आदि शिव' पुकारने का प्रयत्न करते हुए विष्णु का 8 वाँ अवतार मानते हैं ) और भरत काल में भी। राम और कृष्ण के काल में भी था और आज भी है । जिस घोड़े का अस्तित्व पुरातत्वज्ञ भारत में बहुत बाद में आया मानते हैं और श्री राजाराम एवं झा के विचारों से असहमति रखकर खण्डन करते हैं वही घोड़ा श्री राम द्वारा अश्वमेघ यज्ञ में विचरने छोड़ा गया था । वह तो उस समय बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ का काल था। कृष्ण और महाभारत के काल में भी था जो कि 22 वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि का काल था और सिंधु घाटी काल में भी था जो इक्कीसवें तीर्थंकर श्री नमिनाथ का काल कहा जाता है। उससे भी पूर्व पुरा पाषाण काल में घोड़े को मानव शव के साथ दफनाने के कंकाल भी प्राप्त हुए हैं । (डॉ राधा कान्त वर्मा तथा ) चूल्हों के प्रमाण भी मिले हैं। (प्रो. जी. आर. शर्मा) पुरातत्वज्ञों की ये कुछ ऐसी "अटकलें" और "अनुमान" हैं जो भारतीय संस्कृति को अस्तित्व हीन करते हैं जबकि सैंधव लिपि अंकन में घोड़ा जैसा पशु उसी पाषाण युगीन शैली से परिचित करा देता है। पशु तो दिखलाई देता ही है शैलांकनों और सीलों से प्राप्त अंकन में भी स्पष्ट दिखलाई देता है। एक ओर Dr.v.s. वाकणकर जैसे पुराविद् भीम बैठिका को उसी पाषाण युगीन शैली के काल का बतलाते हैं तो अनेक सीलें भी इसी तथ्य से परिचित करा देती हैं ।
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