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प्रथम और महावीर अंतिम तीर्थकर थे और उनके ही बाद पंचम दुषमा/दुखमा का वर्तमान काल का प्रारंभ हुआ । इस दुखमा कालखण्ड के 30,000 वर्ष बीतने पर अत्यंत दुखद छठवां कालखण्ड दुखमा-दुखमा का आवेगा जिसमें सामान्य मनुष्य जी नहीं पाएगा अतः उसमें बहुत से परिवर्तन आएँगे । उसके बीतने पर उत्सर्पिणी के छह काल खण्ड विपरीत क्रम में होंगे । ऐसे परिवर्तन निरंतर आए हैं और आते रहेंगे । उत्सर्पिणी से उत्सर्पिणी तक एक काल कहा गया है 60/- जो सर्प की तरह निरंतर अपनी गति से आगे बढ़ता अन्य सह द्रव्यों पर अपना प्रभाव दर्शाता है विशेष कर पुदगल पर पुरानापन लाकर ।
इतिहास और पुरातत्त्व इन्हीं परिवर्तनों को अवशेषों के माध्यम से आंकता है । कभी मिट्टी.. पाषाण, धातु, काष्ठ, हड्डी, . के अवशेष, तो कभी अस्थियां/कंकालों की प्राप्ति । कभी गुफाओं, ईंटों के ढेरों, झोपड़ियों, कुंओं, चूल्हों, भट्टियों, जले अनाजों से तो कभी जेवरों, माला मनकों से कभी शैलांकनों तो कभी चित्रांकनों से । संपूर्ण भारत में ही ऐसे पुरा प्रतीक प्राप्त हुए हैं जिनका प्रचलित मान्यताओं से कभी मेल बैठता है और कभी नहीं | बहु संख्यक हिन्दु धर्मी भारत में खींचतान कर साम्य बैठाने की बेहद कोशिश की गई है किन्तु पुराविदों को संतुष्टि नहीं मिली जबकि अल्प संख्यक जैन धर्म के प्रचलित सिद्धांतों से जिनका मूल सनातनी कहा गया है और प्रतीत भी होता है वह संपूर्णता से सामंजस्य रखता है । तब ऐसा लगता है कि वह सम्पूर्ण प्राच्य सभ्यता
और संस्कृति वास्तव में जैन श्रमण संस्कृति ही थी जिसे लगभग सारे जैनों ने भी भुला दिया है । मात्र श्रमण वर्ग उससे परिचय रखता है । चूंकि श्रमण मार्ग सामान्य जन मार्ग से भिन्न है अतः हमारी वही पुरा परंपरा हमारे लिए अपरिचित सी हो गई है।
पुरातत्त्वज्ञ जिस काल को तथा कथित “पाषाण युग" कहते हैं उसमें उनकी मान्यतानुसार धातुओं का प्रचलन नहीं हुआ था और मानव आखेटी/जंगली था अतः शिकार द्वारा उदर पोषण करता था । कल्पना किसी भी तरह की की जा सकती है किन्तु ऐसी मान्यता सहज स्वीकार्य नहीं होती । वे सिल लोढ़े, कूटक, चक्की पेषणी के रूप में आज भी उपयोग में हैं।
मानव प्रकृति से शाकाहारी है । प्रकृति का कोई भी शाकाहारी प्राणी स्वभाव से आखेटी नहीं होता है । नैसर्गिक स्थिति में मनुष्य तैयार भोजन सामग्री सहज ग्रहण करता है यथा, कंदमूल फल जिनकी बड़ी ही व्यापक उपलब्धि है । कच्चे चने/मटर/मूंगफली/भुट्टे भी खाता है । ककड़ी की तरह बैंगन भी खाते देखा गया है । उसका दूसरा प्रयास होता है इन्हीं सब वस्तुओं तथा धान्यों को भूनकर, होला बनाकर खाने का । इसके लिए उसे ना तो चूल्हे की आवश्यकता होती है ना पात्रों उपकरणों की । कहीं भी साफ सा सूखा स्थान देख, थोड़ा सूखा घास फूस रखकर चकमक पत्थर से चिनगारी पैदा करके उसमें सहज ही चना, गेहूँ की बातें भूनी जाती हैं और हाथ से मींडकर फूंक से साफ कर के खा ली जाती हैं । आसपास के कुछ सूखे गोबर लीद लकड़ी से अग्नि बढ़ाकर बाटियां और भुर्ता तैयार करना, शकरकंद आदि भूनना सहज हो जाता है । लगभग समूचे वर्ष ही स्वादिष्ट फल वनों बागों में प्राप्त हो जाते हैं । तब मानव का हिंसक बनकर शिकार भूनना अस्वाभाविक सा लगता है | आखेट और शिकार उसने सर्वप्रथम अपनी और अपने बच्चों/आश्रितों की सुरक्षा हेतु ही किए होंगे । जब-जब इस प्रकार आग लगाई जाती है आसपास की मिट्टी पकती है और उसमें मौजूद धातु तत्त्व पिघल कर उसे मजबूती देता है । धातु का अविष्कार ही इस प्रकार हुआ है और पानी की लहरों ने उसे किनारे छोड़ दिया है । आज जैसे प्रगतिवान वैज्ञानिक युग में भी सहज ही आदिवासियों का जीवन पाषाण युगीन ही दिखाई देता है। इसका अर्थ कदापि नहीं है कि जो पाषाण अवशेष पुरातत्त्वज्ञों ने काल की अगाध गहराई में जहाँ कहीं पाए हैं वे सब किसी "पाषाण युग" के ही द्योतक हैं । पाषाणी उपकरण आज भी देहातों में घर-घर ही नहीं शहरों में भी दिखाई देते हैं और आर्थिक जटिलताएं आज भी मनुष्य को नैसर्गिक जीने के लिए प्रगतियुग को चुनौती देती उसी पाषाण युगीन शैली से परिचित करा जाती हैं । भारत का मौसम ही इतना अनुकूल है कि जीवन सहज चलता है।
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