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________________ डॉ राकेश प्रकाश पाण्डेय ने अपनी पुस्तक "भारतीय पुरातत्व" (म. प्र. हिन्दी ग्रंथ अकादमी प्रकाशन 1989) में पुरातत्व को परिभाषित करते हुए दर्शाया है कि मानव सभ्यता के पुरा अवशेष प्रागैतिहासिक काल (Pre-history) से चलकर आद्य इतिहास (Protohistory) और वर्तमान इतिहास तक कैसे पहुंचे हैं । संस्कृति मानव समाज का ऐसा दर्पण है जो मनुष्य के प्राचीन काल से वर्तमान तक के जीवन यापन की झांकियों से संबंध रखता है । मनुष्य के जीवन यापन, वैचारिक आदान-प्रदान, परम्पराओं, आमोद-प्रमोद, सामाजिक समूह व्यवस्था, जन्म-मरण, आस्थाओं, आवश्यकताओं अन्य जीवों के साथ उसका अस्तित्त्व उत्सव बौद्धिक विकास, आवागमन, शव अन्त्येष्टि आदि की झलक उस संस्कृति में हमें स्पष्ट दिखलाई दे जाते हैं । ये अपने ऐसे प्रमाण छोड़ते हैं जो "काल" के आधार पर मानव सभ्यता के विकास की झांकी दिखला देते हैं । कभी कल्पनाओं तो कभी खोखली मान्यताओं, अथवा डारविन जैसे सिद्धांतवादियों की चर्चाकर, तो कभी स्वयं को वैज्ञानिक कहकर अपनी मान्यता को समर्थन दिलाने की जिद करते ये आगे बढ़ते हैं । सबसे बड़ी बात यह है कि ये सभी पूर्व पुराविद् या तो भगवान को "सृष्टि रचेता" मानते आने के कारण संस्कृति और सभ्यताओं को वैदिक और वैष्णव आधार पर ही तौलते हैं याकि स्वयं को वैज्ञानिक मानने वाले धरती की उत्पत्ति शनैः शनैः गैस का गोला ठंडा होने से जिस पर जल के कारण जीवन आया और अचानक (?) जीव पैदा हो गए (सूक्ष्मतम जीवन से ........... कमशः आकार बढ़ाते हुए) ! उस जीव विकास में सबसे पहले काई/फफूंद आए और फिर मछलियाँ (कहाँ से ?) पश्चात् उन्हीं से बदलते हुए पक्षी और अन्य जानवर यहाँ तक कि बंदर से मनुष्य बन गया । ये बातें लंबे काल लगभग 100-200 वर्ष तो प्रभाव बनाए रखीं परन्तु अब अविश्वसनीय सी हो चुकी हैं । वर्तमान वैज्ञानिक "जीन्स थ्योरी" चुनौती बनकर सामने आने से अब जैन दर्शन का सिद्धांत ठोस आधार पाने लगा है जिससे यह संसार स्वनिर्मित शाश्वत् षट् द्रव्यों से बना माना गया है (शाश्वत द्रव्यों में 5 अजीव तथा 1 जीव (आत्मा) है जो 5 अजीवों में से एक पुदगल द्रव्य से संयोग करके पर्यायें बनाता है । शेष चार अजीव आकाश, काल, धर्म, अधर्म उन पर्यायों को अवगाह देते हुए स्पर्श करते हैं किन्तु सभी छह अन्यथा स्वतंत्र सत्तावान हैं । इनमें "काल" चकीय है और उसका प्रवाह अग्रमुखी सर्प जैसा सुख और दुख की लहर दर्शाने वाला अतः उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी रूपी है जिसमें प्रत्येक में 6 काल खंड हैं । उन्हीं काल खण्डों की अपेक्षा से जीवन और संस्कृति प्रभावित होती आई है । फलस्वरूप प्रथम काल खण्ड को वर्तमान अवसर्पिणी के परिप्रेक्ष्य में सुषमा सुषमा अथवा कल्प युग कहा गया है जिसमें 10 प्रकार के कल्पवृक्ष मनुष्य का जीवन सुख पूर्ण रखते रहे हैं । उसके बाद का युग युगलिया /सुषमा कहलाता है क्योंकि तब भी कल्पवृक्ष थे किन्तु कुछ कम। भले युगलिया जन्म का प्रचलन अब भी था और जीवन सुखद अथवा सुषमा कालखण्ड था । इसके बाद कल्पवृक्षों की सर्वथा कमी हो जाने से मानव जीवन को कर्मठ बनना पड़ा और उसे कर्मयुग नाम मिला । यह तीसरा कुछ सुख देने वाला दुषमा सुषमा युग था । इसके ही अंत में ऋषमदेव का जन्म हुआ । इसके बाद का युग सुष्म दुबमा का बतलाया गया है जब शेष तीर्थंकरों का जन्म हुआ इस प्रकार ऋषभदेव प्रथम तीर्थकर हुए । इन तृतीय और चतुर्थ काल खण्डों में कठिनाइयाँ, जीवन संबंधी अति कठिन हो गई थीं और क्षेत्रों पर तपस्या हेतु अध्यात्मी जाने लगे थे । तृतीय कालखण्ड के आरंभ से चौथे के अंत तक 24 तीर्थकर हुए हैं आगमानुसार जिनके बीच में लंबा अंतराल वर्णित है। चौदह मनुओं की परम्परा में नाभिराय अंतिम थे । तीर्थकरों में ऋषभदेव (इनके ही पुत्र, और अजनाभ से भारत अर्थात अजनाभवर्ष) के प्रपौत्र 159 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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