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सैंधव लिपि परिचय प्राच्य भारत की उन्नत संस्कृति में जो धर्म, अध्यात्म. भाषा और जीवन चर्या की गूंज है वह हमें वर्तमान में संपूर्ण रूप से क्षत विक्षत दिखाई देती है । वर्तमान उस प्राचीन से इतना दूर हट चुका है कि अब वह प्राचीन हमें पहचान में भी नहीं आता । हम उसे वर्तमान के ऐनक से देखने की चेष्टा करते हैं तो वह और भी दूर चला जाता है । टीलों, खंडहरों, भूगों और चट्टानी उकेरों में उसकी झलक कभी-कभी दिखलाई पड़ती है तो हम उन उकेरों, उस काल की दैनिक उपयोगित सामग्री को देखकर भी अनदेखा करने की चालाकी करते हैं । हम क्योंकि शनैः शनैः पाश्चात्य प्रभाव में इस प्रकार घिर चुके हैं कि ना हम अब भारतीय रहे हैं ना ही पाश्चात्य | आहार, धर्म, भाषा और रीति रिवाजों में तब हम आदिवासी कहे जाने वाले समूहों में अपनी परम्पराओं को खोजते हैं कि उन्होंने ही उन्हें अशों में संजो रखा है भले तब भी हम भूल रहे होते हैं कि वे आदिवासी भी इतने लंबे काल के अंतराल को भला बद्दू जीवन के साथ अंततः कितना ढो पाए होंगे ? उन्होंने तो हर दिन नए दबाब झेले हैं ।
भारतीय पुरालिपि के साथ भी यही सब घटित हुआ है । मूल में वह कैसी रही होगी और कालांतर में किस प्रकार बदलती गई इस पर कतिपय विद्वानों ने गहन अध्ययन किया है। अल्बर्टाइन गौर ने अपनी किताब ए हिस्ट्री ऑफ राइटिंग में विश्व धरातल पर लिपियों की खोज करके सूमेर और ईजिप्त की संकेत लिपि 3000 ई. पू. की लिपि को भारतीय पुरा सैंधव लिपि से कुछ अंशों में समान पाया है । वह लिपि बेबीलॉन और एसीरिया में कुछ बदले परिवेष में उन्हें दिखी । उस काल की लिपि को उन्होंने चित्रांकन (पिक्टोग्राम), स्वरांकन (फोनोग्राम) तथा संकेताक्षरों (डिटरमिनेटिव्स) में विभाजित करके उनका मूल्यांकन किया । श्री ग्रेगेरी एल. पोसेल ने अपनी पुस्तक "द राइटिंग सिस्टम 1996 में कुछ हटकर अभिव्यक्ति दी है । उनकी एन्शियेंट सिटीज ऑफ द इंडस (नई दिल्ली, 1979) में उन्होंने मोहनजोदड़ो, हडप्पा, चानुदारो, कोटदीजी, अम्री, कालीवंगन, लोथल, रंगपूर सभी से प्राप्त सामग्री को अपना अध्ययन का विषय बनाया हैं । श्री इरावथम महादेवन ने संपूर्ण उपलब्ध सामग्री विशेष कर श्री एम. एस. वत्स, कर्नल जे. एम. मार्शल तथा श्री मैके के ज्ञापित केटालॉगों में तथा अन्य उपलब्ध लिपिक सामग्री पर अपने इंडेक्स तथा कान्कोर्डेन्स प्रकाशित किए हैं। भारतीय लिपिविदों में श्री एस. आर. राव लिपि के अत्यंत परिपक्व शोधकर्ता माने जाते हैं । अपने उत्खनन अभियानों में उन्होंने लोथल तथा हड़प्पा (द कोलेप्स ऑफ द इंडस स्किप्ट) के अलावा अन्य खुदाईयों से प्राप्त 2400-1600 ई. पू. लिपियों के ऊपर विशेष अध्ययन करते हुए अपने अभिमत दर्शाए हैं जो विश्व में अत्यंत मान्यता प्राप्त हैं । भारतीय पुरालिपि के जाने माने विद्वानों में डॉ पी. एल. गुप्ता का भी उल्लेख सदैव किया जाता है जिनके लिपि चार्ट ख्याति प्राप्त हैं । विश्वविद्यालयों में लिपि विज्ञान में इन चार्टी को अत्यंत विशेष मानकर पढ़ाया जाता है जो गिरनार, ब्राह्मी, पाली अक्षरों पर विशेष ध्यान आकर्षित करते हैं ।
श्री झा एवं राजाराम जी का भी बड़ा योगदान लिपि विज्ञान में माना गया है किंतु वे उपरोक्त परंपरा से कुछ हटकर जाने जाते हैं । एक ओर जहाँ श्री राव, गुप्ता आदि भारतीय पुरा लिपि को वेद प्रभावित जानते हैं वहाँ श्री झा, राजाराम उसे पूर्व वैदिक मानते हैं । श्री जे. एम. केनोअर वर्तमान में (ईरानी) अग्रणी पुराविद् हैं जो पाकिस्तान के सिंधु घाटी पुरा वैभव पर शोधकर्ता अमेरिका वि. वि. में कार्यरत हैं । उनके दर्शाए अति विशेष चिन्हों में एक "वूम्ब स्केच" और दूसरा चतुर्दिक त्रिआवर्ति भारत के शैलांकनों में दृष्ट अति सामान्य अंकन हैं । ये सिद्ध कर देते हैं कि जहाँ-जहाँ ये अंकन दृष्ट हैं वहाँ-वहाँ कभी पुरा वैभव जीवंत था। श्री वाकणकर ने भी भारतीय पुरा अवशेषों और मानव सभ्यता, विशेष कर भीमबैठिका संबंधी संपन्न शोधकार्य किए हैं । किंतु श्रमण परंपरा पर किसी ने ध्यान नहीं दिया ना ही ध्यानाकर्षण पर उसे दृष्टिकोण में लिया।
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