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________________ भवचक्र पार किया (ब) सल्लेखीय निकट भव्य है। सल्लेखना करते निकटभव्य ने वैयावृत्य झूला पाया । तीन धर्मध्यानों के स्वामी तपस्वी ने संघाचार्य के समीप पंचाचार करते वीतरागी तपस्या स्वीकारी । संसारी की अंतहीन गठान । भवघट से पार होने तीर्थकर के चरणों में स्वसंयमी अणुव्रती ने घर से ही सीमाएं बनाई । छत्रधारी राजा ने आत्मस्थता का वैराग्य धारण कर ढाईद्वीप में वीतराग तपस्या किया । बारह व्रत तपते जिन लिंगी गुणस्थानोन्नति रत्नत्रय सहित जिनशासन के अंतर्गत संघाचार्य की शरण में करते हैं ।वे साधु/आर्यिका श्रावक श्राविका होते हैं। बनावली क्री खुदाई से प्राप्त सीलों पर के अंकन कुंथुनाथ के प्रभावना काल के प्रतीत होते हैं। सप्त तत्व चिंतक तीर्थकर कुंथुनाथ के प्रभावना काल में षटद्रव्यों में आस्था रखते हैं/थे। (2) कुंथुनाथ के प्रभावना काल में रत्नत्रय पालते वीतरागी तपस्वी चातुर्मास करते हैं/थे । कुंथुनाथ काल में दो धर्मध्यानों के स्वामी भी वीतरागी तपश्चरण सहित सल्लेखना तत्पर होते थे । कुंथुनाथ के काल में रत्नत्रयी, चार धर्मध्यानी होते थे (महाव्रती)। (5) जिनध्वज की शरण में ऋषभ परंपरा में, तपस्वी वीतरागी तपश्चरण करते या ऐलक होकर दो धर्मध्यानों से तीर्थकर प्रकृति का बंध करके निकट भव्य युगल बंधुओं सा भवचक पार करते थे । (6) , स्वसंयम द्वारा तपस्वी ऋषभ काल में चारों दुर्ध्यान त्यागते थे । (7) वीतरागी तपस्वी का वातावरण रत्नत्रयी शुद्धात्म शरणी होता है । तपस्वी कुंथुनाथ का भक्त है और निश्चय व्यवहारी तपस्वी है। तथा हर काल में जिन का भक्त रहा है । 157 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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