________________
पश्चिमी एशिया से प्राप्त लिपि अंकन ।
दशधर्मो का सेवन करते श्रमणों ने सिद्धत्व/शुद्ध आत्मत्व के लिए बारह भावना भाई और जिनसिंहासन के दोनों प्रमुख लिंगियों ने सिद्धत्व के लिए संयम पुरुषार्थ उठाकर बर्र जैसा अथक उद्यम किया । चकी ने आरंभी गृहस्थ की भूमिका से दो धर्मध्यानों के स्वामित्व से चार धर्मध्यान प्राप्त करने रत्नत्रय धारा । ऐलक ने छह आवश्यक करते हुए वीतरागी तपश्चरण किया । दशधर्म सेवन करके ढाईद्वीप में पुरुषार्थी सल्लेखी ने तीन धर्मध्यानों के साथ तपस्या प्रारंभ कर संघाचार्य के पास रत्नत्रय धारा और वीतरागी तपश्चरण किया। गुणस्थानोन्नति करते क्षुल्लक ने पुरुषार्थी प्रतिमा संयम एक साल में बढ़ाया फिर वे रत्नत्रयी तपस्या करते संयम उठाते, जिनलिंगियों के पास ध्यानस्थ होकर तदभवी तपस्वी मोक्षगामी बने । वीतरागी मुनि ने तपस्या से प्रसिद्ध केवलत्व पाया और मोक्ष गए। अयोगी केवली। रत्नत्रयी जंबूद्वीप में निश्चय-व्यवहार धर्म को पालते संघाचार्य जिन सिंहासन का अंग होते हैं। जंबूद्वीप पंचाचारी ने रत्नत्रयी जंबूद्वीप में शुद्धात्म स्मरण से गुणस्थानोन्नति वाला सल्लेखना का झूला पाया और पंचपरमेष्ठी का स्मरण करते रहे । मन को स्थिर करके पंचमगति के लिए रत्नत्रय पालते चतुराधक सल्लेखी ने समाधिमरण हेतु चार अनुयोगी निश्चय -व्यवहारी चतुर्विध संघाचार्य की शरण ली।
(11)
(13)
महामत्स्य जैसा संहनन पाकर मनवचनकाय से वीतराग तपश्चरण करते अर्धचकी ने वीतरागी तपस्या उन्नत की । औपशमी ने रत्नत्रय से गिरते हुए भी भवतारी बन चातुर्मास में शुद्धात्मतत्व के लिए वीतरागी बंधुओं जैसी तपस्या की। छत्रधारी तपस्वी ने युगल तपस्वी बंधुओं जैसा उत्तम श्रमण तप किया और नव व्रत किए ।
औपशमी ने
(14)
(17)
.
राग
(15) तपस्वी साधु ने तीन धर्मध्यानों के स्वामी जैसे तपस्वी हो शुद्ध आत्म तत्व के तपस्वी बनकर पुरुषार्थ पुनः पुनः
उठाते हुए पंचमगति के लिए तीसरे शुक्लध्यान तक की प्राप्ति की । (16) श्रमी श्रमण शाकाहार की प्रभावना करते हुए दोनों रत्नत्रय धारी बंधु तपस्वियों की तरह पंचमगति आराधक थे।
युगल बंधु-तपस्वी पंचाचारी थे । (18) गृहस्थ ने स्वसंयम धारण करके तपस्या करते महाव्रत लिया और सल्लेखना द्वारा घातिया चतुष्क क्षय करके भवचक
से पार हुए । (19) गृहस्थ ने वीतरागी तपश्चरण करते हुए चातुर्मास किए और आत्मस्थता की स्थिति बनाई आत्मस्थ वीतरागी तपश्चरण
किया और निश्चय-व्यवहारधर्म सहित सल्लेखना करके संसार को शेष किया । (20) दो धर्मध्यानों के स्वामी ने वीतरागी तपश्चरण द्वारा सल्लेखना लेकर अदम्य पुरुषार्थ बनाया । (21) (अ) वीतरागी तपश्चरण से गुणस्थानोन्नति करते रत्नत्रयी ने पंचमगति का साधन बनाते दो शुक्लध्यानों को प्राप्त कर।
156
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org