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गुणस्थानोन्नति पंचाचार और पंचमगति का आधार है / गुणस्थानोन्नति से ही पंचाचार और पंचमगति है। (28) आरंभी गृहस्थ अर्धचकी होकर सल्लेखना का पुरुषार्थ बनाकर चतुराधन सहित समाधिमरण करते वीतरागी तपस्वी जैसा निकट भव्य बनकर गुणस्थानोन्नति कर लेना है।
भवघट से तिरने दो धर्मध्यानों का स्वानी अरहंत की शरण में महाव्रती ले निश्चय व्यवहारी चतुर्विध संघाचार्य है। तपस्वी के पैरो में बंधन / बेड़ी भी उसे रत्नत्रयी चतुराधन से नहीं रोक सकते वह दो धर्मध्यानों के स्वामित्व से ही चारों कषायों को त्यागकर तपस्वी बना और अरहंत भी बन सकता है ।
भवघट से तिरने की यात्रा दो धर्मध्यानों से प्रारंभ होती है अथवा भवघट से तिरने के लिए दो शुक्लध्यान (अरहंत अवस्था) आवश्यक हैं।
भवघट से तिरने की यात्रा दो धर्मध्यानों से प्रारंभ होती है । अथवा भवघट से तिरने के लिए दो शुक्लध्यान (अरहंत अवस्था) आवश्यक हैं ।
सप्त तत्त्व (जीव अजीव (कर्म), आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष) चिंतन |
रत्नत्रय (सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक् चारित्र)
अष्टकर्म जन्य चतुर्गति भ्रमण पुरुषार्थी के तीन धर्म ध्यानों का कारण बनता है जब वह चारों अनुयोगों का आश्रय लेकर ज्ञानार्जन करता है ।
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षट्काल / भवचक
आत्मस्थ का वीतरागी तपश्चरण ।
आरंभी गृहस्थ का निकट भव्य बनकर वीतरागी तपश्चरण करते हुए जाप के साथ तपश्चरण । आरंभी गृहस्थ पुरुषार्थ बनाकर सप्त तत्त्व चिंतन करता और वीतरागी तपस्या की भावना भाता है । रत्नत्रयी कैवल्य |
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पुरुषार्थी क्षयोपशमी सरागी पुरुषार्थी भी महाव्रती बन चार अनुयोगी निश्चय-व्यवहारी चतुर्विध संघाचार्य की शरण में जाकर पंचपरमेष्ठी आराधन करता तपस्वी बन पुरुषार्थ उठाते गिराते तपस्या में ध्यानस्थ हो गया ।
रत्नत्रयी वातावरण से भव सीमित करके रत्नत्रयी चतुराधक ने सल्लेखना ली ।
आरंभी गृहस्थ ने तीन धर्मध्यान प्राप्त कर ऋद्धिधारी गुरु की शरण में स्वसंयम उठाया और उपशम द्वारा गुणस्थानोन्नति करके रत्नत्रय में झुका ।
(39) चातुर्मास में आत्मस्थ होकर तपस्या करते निकट भव्य ने गुणस्थानोन्नति की ।
(40). बारह भावना भाते महामत्स्य जैसे संहनन वालो ने हर उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी में अष्टकर्म जन्य चतुर्गतियों को नाश किया
है ।
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