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________________ Ea . की प्राप्ति करता है। (85) दो धर्मध्यानी शाकाहारी वीतरागी तपस्या करता सल्लेखना लेकर अरहंत लीन होता है । (86) महामत्स्य सा सबल संस्थान पंच परमेष्ठी आराधन से ही प्राप्त होता है । कालीबंगन लोथल से प्राप्त पुरा लिपि संदेश भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों के स्वामी ने एकदेश संयम धारणकर रत्नत्रयी जंबूव्दीप में वीतरागी तप किया। अर्धचकी संघाचार्य के चरणों में रत्नत्रय धारण हेतु पहुंचा जहाँ दो धर्मध्यानों के स्वामी छत्रधारी राजा सल्लेखनारती . की वैयाव्रत्य कर रहे थे । तपस्वी युगल पर्वत पर स्वयंतीर्थ बन तपस्यारत थे तथा नव देवताओं के नवव्रती रत्न त्रय को धारण किए वीतरागी तपस्या में लीन थे। पंचाचारी चारों कषायों को त्याग करने वाला तपस्वी और पंचपरमेष्ठी का आराधक है । छत्रधारी राजा दो धर्मध्यानों का स्वामी चार घातियों का नाश करने वीतरागी तपस्या में लीन हुआ । सप्त तत्त्वों का चिंतन करता पंचमगति को पाने वाला वह वीतरागी तपस्वी ही होता है । रत्नत्रयी चतुराधक । छत्रधारी राजा, तपस्या तत्पर | (8) स्वसंयमी का अदम्य पुरुषार्थ उसे संघाचार्य के चरणों में रत्नत्रयी पुरुषार्थ के लिए प्रेरक होता है । चार नयों से धर्म की अभिव्यक्ति । (10) तीन धर्मध्यानों के स्वामी का तपस्वी वातावरण अरहंत उपासना वाला होता है जहाँ संसारी आत्मस्थ हो वीतरागी तपश्चरण करने के लिए दो धर्मध्यानों से तपस्या प्रारंभ करते हैं । (11) सप्त तत्त्व चिंतन पंचाचारी तपस्वी का होता है । सप्त तत्त्व चिंतन पंचाचारी तपस्वी का होता है । सप्त तत्त्व चिंतन पंचाचारी तपस्वी का होता है । भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों का स्वामी सिद्धत्व की/शुद्धात्मा की भावना से भीगकर ऐलक और देशसंयमी बनकर जिन सिंहासन के जिनलिंगियों के समीप अदम्य पुरुषार्थ उठा वीतरागी तपस्या में लीन होता है ।। वातावरण अर्धचकी का पुरुषार्थवान था जहाँ दो धर्मध्यानों के स्वामी दो शुक्लध्यानों तक की यात्रा रत्नत्रयी पंचाचार से कर रहे थे। (16) दशधर्मो का सेवी तपस्वी । (17) अरहंत भगवान संसार को पार कर जाते हैं । ___ भवचक से पार उतरने अर्धचकी ने रत्नत्रय धारा और दो धर्मध्यानों के स्वामित्व से चार धर्मध्यानों के स्वामित्व की स्थिति को पाने रत्नत्रय धारा । आत्मस्थ वीतरागी तपस्वी ने रत्नत्रयी जंबूव्दीप में रत्नत्रय धारण करके सल्लेखना लेते हुए वीतरागी तपस्या की । निकट भव्य की पंचमगति साधना चातुर्मास में वैयावृत्य सहित। (21) आत्मस्थ वीतरागी तपस्वी का भवघट ।। (12) (15) (18) (19) 154 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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