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________________ (62) (63) (64) (65) (66) (67) (68) (69) (70) भवघट तिरने दो धर्म ध्यानों का स्वामी दो शुक्लध्यान तक की यात्रा चतुराधन के साथ की गई सल्लेखना और वीतरागी तपस्या से करता है । बारह भावना भाते छत्रधारी राजा भी सन्यास लेकर निश्चय-व्यवहार धर्म वाले चतुर्विध संघ का आचार्य बना । छत्रधारी राजा तपस्या लीन उपशमी बनकर वीतरागी तप करता है । प्रतिमाधारी ने पंचमगति साधक बनकर अदम्य पुरुषार्थ उठाकर वीतरागी तपस्या आत्मस्थ होकर की। एकदेश संयमी बनकर वह रत्नत्रय पालता रहा और वीतरागी तपस्यारत रहा । ऐलक, आर्यिका/रत्नत्रयी मुनि वीतराग तप तपते निश्चय-व्यवहार धर्मी चतुर्विध संघाचार्य की शरण में रहते हैं । चार धर्मध्यानी मुनिगण अष्टकर्म जन्य चतुर्गति से छुटकारा पाने रत्नत्रय पालते और चतुराधन करते हुए दो धर्मध्यानों से ढाईद्वीप में दूसरे शुक्लध्यान की प्राप्ति वीतरागी तपस्या से करते हैं। गुणस्थानोन्नति करते अदम्य पुरुषार्थी ने दो धर्मध्यानों के स्वामित्व से षट् आवश्यक करते वीतरागी तपस्या की । अदम्य पुरुषार्थी ने सल्लेखना धारण करके आत्मस्थ हो वीतरागी तपस्या की और अरहंत की शरण लेकर संघ में रत्नत्रय पालते निश्चय-व्यवहार धर्म की शरणागत हुआ । मन की स्थिरता गुणस्थानोन्नति लाती है । तपस्वी रत्नत्रय पालने वाला दो धर्मध्यानों से उठकर तपस्वी बना स्वसंयमी है जो ढाईद्वीप में आत्मस्थता को रत्नत्रय और सल्लेखना से अरहंत पद प्राप्ति का साधन घोषित करता है । अरहंत लीन आरंभी गृहस्थ पंचम गति साधक ब्रह्मचारी है । चतुराधन से ही वीतरागी तपस्या होती है । चतुराधक सल्लेखी वीतरागी तपस्वी है । अंतहीन भटकान संसार की । महामत्स्य सा सहनन कैवल्य हेतु स्वसंयम और इच्छा निरोध से प्राप्त होता है । बारह भावना वीतरागी तपस्वी को सुहाती है । (वीतरागत्व लाती है) वातावरण निज का/जंबूद्वीप षट् आवश्यकरत तपस्वी रत्नत्रयी पिच्छीधारियों के साथ है जो निरीह मन से तीन छत्रधारी जिनेंद्र प्रभु की शरण में पंचपरमेष्ठी आराधन करता श्रमण बन रत्नत्रय पालता है । उत्सर्पिणी में पुरुषार्थी अरहंत भक्त, छत्रधारी तपस्वी, ऐलक ढाईद्वीप में दूसरे शुक्लध्यान की प्राप्ति हेतु वीतरागी तपश्चरण करते थे। मन की स्थिरता तीन धर्म ध्यानों के स्वामी को उसके अंतरंग वातावरण में उन्नत करके अर्धचकी को भी रत्नत्रय सेवी बना देती है। (72) (73) (74) (75) (76) (78) (82) रत्नत्रयी चतुराधन से दो शुक्लध्यान तक प्राप्त हो जाते हैं । चकी भवघट तिरने को प्रयासरत है । दो धर्मध्यानी व्यक्ति (चतुर्थ गुणस्थानी ) प्रतिमाएं धारण करके ढाईद्वीप में रत्नत्रयी चतुराधन करके दो शुक्लध्यानों (84) 153 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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