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________________ (40) (41) तीर्थकरत्व की प्राप्ति (पूर्वभव में) सल्लेखना से ही संभव । तीर्थकरत्व प्रकृति का पुरुषार्थ करते तपस्वी ने पुरुषार्थ बढ़ाकर वीतरागी तपस्या की और श्रमण बना । . उन दोनों युगल बंधुओं के समवशरण लगे और वे भवघट तिरे । भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों का स्वामी रत्नत्रय अपना कर छत्रधारी राजा होकर भी इच्छा निरोधी स्वसंयम धारण कर लेता है। भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों का स्वामी निकट भव्य ऐलक आरंभी गृहस्थ से उठकर तीन धर्म ध्यानी बनने के । लिए स्वसंयम अपनाता है । भवचक पार करने के लिए दो धर्म ध्यानों वाले चतुर्थ गुणस्थान से साधना प्रारंभ करते हैं । क्षुल्लक भी चार अनुयोगी चतुर्विध संघाचार्य की शरण में रहते हैं । गुणस्थानोन्नति निश्चय-व्यवहार धर्म की तुला पर निश्चय व्यवहार धर्मी श्रमण करते हैं । भवघट से तिरने दो धर्म ध्यान का स्वामी, दो शुक्लध्यानों तक की यात्रा चारों कषाऐं त्यागकर तपस्या करके करता (45) (46) (48) (49) (51) अरहंत पद अदम्य उत्साही को पंच परमेष्ठी आराधन और वीतरागी तपस्या से प्राप्त होता है । भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों का स्वामी तीन धर्मध्यानों को प्राप्त कर रत्नत्रय धारण करता है ऐलक भी आरंभी गृहस्थ से तीन धर्म ध्यानी बनकर रत्नत्रय को पालते तपस्वी बनता है । भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों का स्वामी अरहंत की शरण में निकट भव्य बनता है । भवघट से तिरने दो धर्मध्यानों का स्वामी रत्नत्रय की प्राप्ति एकदेश (अणुव्रत) संयम से स्वयं ही इच्छा निरोध करके करता है। (52) (54) (55) (57) (58) (59) ___ रत्नत्रयी वातावरण बनाकर (युगल बंधु ) आत्मस्थ होकर वीतरागी तपस्या कर रहे थे । सल्लेखी को ही अरहंत पद की प्राप्ति होती है । भवघट से तिरने वाले दो धर्मध्यानों के स्वामी दो शुक्लध्यानों की प्राप्ति के लिए तपस्वी, ऐलक, आर्यिका (रूप में तप करते) होते हैं । अदम्य पुरुषार्थी सल्लेखना पुरुषार्थ से सिद्धत्व/शुद्धात्म की प्राप्ति के लिए सचेलक तपस्वी बनकर चारों कषायों के त्यागी तपस्वी बनते हैं | स्वसंयमी नवदेवता पूजन और व्रत करके संघाचार्य की शरण में रहते हैं । मांगीतुंगी/कुमारीपर्वत/विन्ध्यगिरि चन्द्रगिरि का वातावरण पुरुषार्थी सल्लेखियों का दो शुक्ल ध्यानी तपस्वी वाला होता है/था । अदम्य पुरुषार्थी सल्लेखी आत्मस्थता से वीतरागी तपस्या को तीन धर्मध्यानों से प्रारंभ करते और निश्चय व्यवहार धर्मी चारों अनुयोगों का आधार रखते हैं । गुणस्थानोन्नति वाला वैयावृत्य का झूला पंचमगति आराधक पुरुषार्थवान सल्लेखी को ढाईद्वीप के "धर्मी जन" तथा वह स्वयं रत्नत्रय से पालते हैं । (60) (61) 152 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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