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________________ षट् आवश्यकरत रत्नत्रयधारी 5,6,7, गुणस्थामी पंचरपमेष्ठी आराधक अपनी सल्लेखना स्वयं सीमाओं में बंधकर करते हैं । भवघट से तिरने वाले दूसरे धर्मध्यानी छत्रधारी तपस्वी पुरुषार्थी तीर्थकर प्रकृति वाले तपस्वी पुरुषार्थ बढ़ाकर वीतरागी तपस्या करते हैं । सल्लेखना से तीर्थकरत्व । (25) चार धर्मध्यानों का स्वामित्व एक तिर्यंच (पक्षी) भी पाकर तीर्थकर प्रकृति का पुण्य प्राप्त कर लेता है तब दो धर्म ध्यानों का स्वामित्व रखकर पुरुषार्थी रत्नत्रयी बन स्वयं का पुरुषार्थ बढ़ा (युगल बंधुओं की तरह) वीतरागी तपस्या करने स्वसंयमी बनकर ढ़ाईद्वीप को समता से भरे और पंचाचार करे यह भी संभव है । अदम्य पुरुषार्थ के साथ सल्लेखी ने पंचाचारी बन तपस्या की और चतुराधक सल्लेखी बन पंच परमेष्ठी की आराधना की । सचेलक तपस्वी ने आरंभी गृहस्थ जीवन तीन धर्म ध्यान प्राप्तकर रत्नत्रय साधना प्रारंभ की और देशव्रती बनकर निश्चय व्यवहारी चतुर्विध संधाचार्य की शरण ले ली । संघाचार्य चतुराधक वीतरागी तपस्वी हैं । भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों के स्वामी ने दो शुक्लध्यानों की प्राप्ति हेतु तपस्वी से आत्मस्थ तपस्वी बनकर वीतरागी तपस्या की । (30) सल्लेखी रत्नत्रयधारी ही तीर्थकरत्व और सिद्धत्व पाते हैं । (31) चतुर्गति निरोध। पंचमगति का उद्यम | (32) आत्मस्थ वीतरागी तपस्वी रत्नत्रयी चतुराधन करके दो धर्म ध्यानों की भूमिका से ही गुणस्थानोन्नति की सल्लेखना करके स्वसंयमी बनकर वीतरागी तपस्या करते हैं । 33) (अ) अदम्य पुरुषार्थी ने पुरुषार्थवान सल्लेखना से अरहंत पद की प्राप्ति हेतु चारों कषायों रहित संघाचार्य की शरण ली । (ब) दो धर्मध्यानी वातावरण ढ़ाईद्वीप से चारों कषायों रहित था । अर्धचक्री का पुरुषार्थ चार गतियों पर आधारित होता है। उसने आत्मस्थ वीतराग तपस्या सल्लेखना सहित की और पुनः अगले भव में वीतराग तपस्या (उद्धारक) की । छत्रधारी तपस्वी ने ऐलक बनकर वीतरागी तपस्या हेतु निश्चय व्यवहारी चतुर्दिक संघाचार्य की शरण ली। (36) सल्लेखना से ही अरहंत पद की प्राप्ति संभव । चार धर्मध्यानी, अष्टकर्म जनित चतुर्गति को मेटकर भवधट से तिरने दो धर्मध्यानों की भूमिका में भी सल्लेखना लेकर अरहंत पद की आराधना करता है । मन वचन काय सहित ढ़ाईद्वीप में रत्नत्रय आराधना की जाती है । (39) भवघट से तिरने दो धर्मध्यानों का स्वामी छत्रधारी (राजा) तीर्थकर का पुरुषार्थ बनाने हेतु तपस्या करते हुए पुरुषार्थ । उठाकर वीतरागी तपस्या करता है । (35) छत्रया (37) (38) 151 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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