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स्वसंयमी बने । (18) जिनवाणी द्वारा वीतरागी तपस्वी ने क्षयोपशम किया । - (19) निश्चय व्यवहारी धर्म को अध्यात्मी ने आत्मस्थ होकर रत्नत्रयी वातावरण में आत्मस्थता और तीन धर्म ध्यानों से भव
घटाया । छानुदारो से प्राप्त पुरालिपि संकेतः इनमें अनेक गंभीर त्रुटियां पुरासंकेतो को पढ़ने वालों ने की है उन्हें संशोधित करके ही यहाँ प्रस्तुत किया गया है । (1) तीन धर्मध्यानी वीतरागी तपस्वी का संहनन महामत्स्य का था ।
तपस्वी ने पंचम गति को प्राप्त करने वीतरागी तपस्या की । निकट भव्य ने सल्लेखना पुरुषार्थ किया । छत्रधारी तपस्वी ने पुरुषार्थ उठाकर पंचपरमेष्ठी आराधन द्वारा स्वसंयम धारा और सल्लेखना लेकर अरहंत पद
पाया ।
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वातावरण ही पुरुषार्थमय था । पंचपरमेष्ठी के शरणागत स्वसंयमी ने दो धर्मध्यानों के स्वामित्व से भवचक पार करने दूसरे शुक्लध्यान को पाया। भवघट तिरने को दो धर्मध्यानों की भूमिका से (चतुर्थ गुणस्थानी ने) प्रारंभ किया । सचेलक भी प्रतिमाएँ धारणकर वीतरागी तपस्या की ओर बढ़ सकते है । त्रिगुप्तिधारी ने पंचमगति हेतु वीतरागी तपस्या करते आत्मस्थता ली और निकट भव्य बनकर दूसरे शुक्लध्यान को पाकर भवघट पार होने बढ़ा । सल्लेखना से ही अरहंत पद मिलता है । भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों के लिए अर्धचकी आगे बढ़ा । जंबूद्वीप में रत्नत्रय से ही तीर्थकरत्व है । दूसरे शुक्लध्यान का स्वामी रत्नत्रय से पंचमगति पाता है ।। संसार से पंचमगति के लिए सिद्ध/शुद्ध आत्म प्राप्ति हेतु दो धर्मध्यानों के स्वामित्व से दूसरे शुक्लध्यान के स्वामित्व तक की यात्रा तपस्वी चारों कषाऐं त्यागकर करता है । दो धर्मध्यानों का स्वामी अपने वातावरण को तीन धर्मध्यानों का बनाकर वह अर्धचकी भी रत्नत्रय का धारक बन जाता है । अष्टकर्म जन्य चतुर्गति भ्रमण । निश्चय व्यवहारी संघाचार्य सल्लेखना लेकर अरहंत बनने की साधना करता है । चतुर्गति में भ्रमण करता जीव ही सल्लेखना लेकर निकट भव्य युगल बंधुओं जैसा वीतरागी तप लीन है । शाकाहार और वीतरागी तप यही जिनधर्म का मार्ग है । रत्नत्रयधारी तपस्वी वीतरागी तपस्वी होता है । मुनि दिगंबर ही तपस्वी होता है ।
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