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मोहन्जोदड़ो के शासकों एवं व्यापारियों से संबंधित सामग्री चतुर्गतिक भ्रमण रोककर वीतरागी तपस्या और चतुराधन करते समाधिमरण हेतु सचेलक तपस्वी ने चातुर्मासी शरण लेकर दो धर्मध्यानों से ही भवघट तिरने का संकल्प लिया । श्रेयांसनाथ तीर्थंकर की शरण में भक्त ने अंतहीन भटकान शेष करने अपने भव को षट् आवश्यकों में सीमित कर संघ के दो अंगों के रूप में भवचक्र पार करने का संकल्प लिया । आदिजिन के मार्ग पर गुणस्थानोन्नति करते निकट भव्य ने दो शुक्लध्यानों के लिए रत्नत्रयी चतुराधन करते अष्टापद सा पुरुषार्थ उठाया । वीतरागी तपस्वी ने पुरुषार्थ उठाकर पक्षियों जैसा निरीह बनकर स्वसंयमी होने का पुरुषार्थ किया और चतुर्गति भ्रमण को रोका (नोट-जैसा पक्षी वर्ष में कभी-कभी सल्लेखना हेतु चिली में मृत्यु करते हैं) श्री अजितनाथ के भक्त ने चारों कषायों को त्यागकर ऐलक पद धारण किया और वीतरागी तपस्या हेतु निश्चय व्यवहार धर्म की शरण लेकर सल्लेखना धार कर अपना वातावरण जंबूद्वीप में संभाला । रत्नत्रय तीसरे धर्मध्यान से प्रारंभ होता है। चतुर्गतिक भ्रमण रोकने भक्त ने अंतहीन भटकान शेष करने भव को अष्टान्हिका व्रतों से सीमित करते हुए संघ के
दो अंगों के रूप में भवचक्र पार करने का संकल्प किया । (8). (अ) सुमतिनाथ जिन के भक्त की नौका भवसागर तिराने वाली जिनसिंहासनी थी जिसमें गुणस्थानोन्नति अंकन है।
(ब) कर्मफल चेतना तपस्वी जीव को भी ग्रसती है छोड़ती नहीं। सब अपना-अपना कर्मफल भोगते ही हैं । (स) रत्नत्रयी वातावरण में तीन धर्म ध्यानों से तपस्वी वीतरागी तपस्या करके आत्मस्थ (युगल बंधुओं जैसा) वीतरागी तप करता हुआ साधक बनता है । ऋषभदेव की परम्परा में वीतरागी तपस्वी ने पुरुषार्थ उठाकर पंचपरमेष्ठी आराधना द्वारा चार घातिया कर्मों को नाश करने का उद्यम किया ।
नंद्यावर्त । जिनध्वज की शरण में तपस्वी के पैरों में (जलती) बेड़िया डली होने पर भी उन्होंने आत्मा में स्वयं को स्थिर करके निश्चय-व्यवहार धर्म की शरण में अपने आप को संयमित रखकर रत्नत्रय आराधन किया और त्रिगुप्ति धारे रहे । ध्यानमग्न आदिनाथ । चिलास से प्राप्त अंतहीन गठान का संकेताक्षर। चित्र 7.8 : "जिन" का खंडित कायोत्सर्गी धड़ । अजित प्रभु के भक्त ने स्वसंयम धारकर तपस्या करके 2 धर्मध्यानों से ही भवघट तिरने की तैयारी की । शाकाहार ही वीतरागी तपस्वी की आहार चर्या का आधार है। पंच परमेष्ठी को आधार बनाकर त्रिगुप्तिधारी ने पंचमगति का ध्येय रखकर गुणस्थानोन्नति की और मांगी-तुंगी/ कटवप्र/कुमारी/उदयगिरि खण्डगिरि पर संघस्थ हो क्षयोपशमिक तपस्या की और अदम्य पुरुषार्थ उठाते हुए
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