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________________ page No. CXVI 1-20 (1) (2) (3) (5) (अ) (ब) (6) (7) (अ) शिखर तीर्थ । (ब) वैय्याव्रत्य पाकर दो धर्मध्यानी सल्लेखी भी वीतराग तपस्वी बन जाता है । (8) (अ) दो धर्मध्यानों से ढ़ाईद्वीप में दो शुक्लध्यानों की प्राप्ति हेतु लोकपूरण द्वारा स्वसंयमी भव को संभालता है । (ब) दो धर्मध्यानों से शिखर तीर्थ पर पंचाचार संभव हो जाता है । लोकपूरणी के लिए तीन शुक्लध्यानों और पंचमगति की आवश्यकता ढाईद्वीप में होती है । (21) छह तपस्वी खडगासित कायोत्सर्गी । दो धर्मध्यानी सल्लेखी तपस्वी की पंचमगति साधना का वातावरण अरहंतमय है । दिगम्बरत्व और आरंभी गृहस्थ । (9) (10 / 13 ) - ( अ / ब) पुरुषार्थ से कायोत्सर्गी तपस्वी, पक्षी जैसा निरीह हो जाता है । (12) दो शुक्लध्यानों वाला वातावरण । (15) रत्नत्रयी जंबूद्वीप में छत्रधारी (राजा) छत्री संघाचार्य बनकर चतुराधन करते वीतरागी तपस्या लीन हुए षट् द्रव्यों का चिंतन करते हैं। (18) (अ) तीन धर्मध्यानी सचेलक तपस्वी ने पंचाचार द्वारा ऐलकत्व / आर्थिका पद से वीतरागी तपस्या करके गृहियों / गृहस्थी में तीन धर्मध्यान डाले (प्रभावना की ) । (ब) तीन धर्मध्यानी ने पुरुषार्थ उठाकर ऐलकत्व / आर्यिका पद धारकर महामत्स्य सा अपना संहनन बनाया और चतुराधन सहित समाधिमरण किया जिससे उसे अरहंत पद का तीसरा शुक्लध्यान प्राप्त हुआ । भवघट से तिरने के लिए दो धर्म ध्यानों का स्वामी निकट भव्य पंचाचारी तपस्वी बन सप्त तत्व चिंतन करता वीतरागी तपस्या उत्तरोत्तर बढ़ाता है (वर्द्धमानी होता है) । रत्नत्रयी जंबूद्वीप में कैवल्य सल्लेखी को दिगम्बरी निरीहता और वीतरागी तपस्या से मिलता है । (अ) अस्पष्ट । (ब) आत्मस्थ जीव निकट भव्य चतुराधक सल्लेखी, वीतरागी तपस्यारत है जिसने निश्चय - व्यवहार धर्मी संघाचार्य बनकर उत्तरोत्तर वातावरण उन्नत किया और रत्नत्रयी केवली बना । गृहस्थ पुरुषार्थी वीतरागी तपस्वी है जिसने पंचाचार द्वारा रत्नत्रयी तपस्वी बनकर वीतरागी तपस्या की । (22) (23) अस्पष्ट | पुरुषार्थ बढ़ाते हुए दाईद्वीप में दो धर्मध्यानों के स्वामी का रत्नत्रय पालन और स्वसंयमी बनकर भवघट में आत्मकेंद्रित होना | अष्टकर्मों से उपजी चतुर्गति को रत्नत्रय से एक आरंभी गृहस्थ भी सल्लेखना द्वारा महाव्रती अवस्था तक पहुंचकर मेट सकता है । (30) Jain Education International 145 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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