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________________ (539) (540) (541) (542) (543) (544) (545) (547) (548) (549) (550) (551) (552) (553) (554) (555) (556) संघस्थ चतुराधक तपस्वी ने तीर्थकर प्रकृति कर्म बांधकर तीसरे शुक्लध्यानों की प्राप्ति अरहंत बनकर गृहत्याग से की। उत्सर्पिणी में पुरुषार्थी सल्लेखी पंचमगति का लक्ष्य बनाकर दो धर्मध्यानों के स्वामित्व से रत्नत्रय पालते छत्रधारी (छत्री) राजा ने चतुराधन से तपस्या करने तपी बन दो धर्मध्यानों के स्वामी का पुरुषार्थ बढ़ाते हुए वीतरागी तपस्या की। निकट भव्य ने आरंभी गृहस्थ की स्थिति से तीन धर्म ध्यानों के स्वामित्व को पाकर ढ़ाई द्वीप में दूसरे शुक्लध्यान तक की वीतरागी तपस्या की । तीन धर्मध्यानी निकट भव्य पाँच महाव्रत और षट् आवश्यक पालते हैं । भवचक्र से पार होने सल्लेखी ने षट् आवश्यक करते हुए तपस्या की और स्वसंयम लिया । पंचगतिआराधक रत्नत्रयधारी छत्रधारी है जिसने अष्टापद की तरह हार न मानते हुए सल्लेखना लेकर छत्रधारी होकर भी सचेलक / ऐलक बन त्रिगुप्ति धारी । सल्लेखी ने जायें की है (युगल बंधुओं की तरह) मौनव्रती रहकर (558) (550) (560) भवचक । द्वादश अनुप्रेक्षी, वीतरागी तपस्वी, चतुराधक धर्मरक्षक है जिसे अनेक बाधाएँ झेलना पड़ीं । भवचक्र से पार उतरने सल्लेखी ने गुणस्थानोन्नति करते हुए दो धर्मध्यानों से दो शुक्लध्यानों तक तपस्वी बन महामत्स्य जैसा उत्तम संहनन पाकर हर काल में चतुराधकी सल्लेखी बन पंचमगति के लिए तप किया । गृहत्यागी ऐलक तपस्वी प्रतिमाधारी पुरुषार्थी है जिसने वीतरागी तपस्या की । भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों के स्वामी ने दूसरे शुक्लध्यान तक की तपस्या हेतु स्वसंयम धारा । दो धर्मध्यानों के स्वामी ने ढाईद्वीप में रत्नत्रयी चतुराधन और रत्नत्रयों से तीन धर्मध्यानी बनकर जंबूद्रीय में पाँच व्रत षट् आवश्यक पाले । रत्नत्रयी केवलत्व के लिए तपस्वी ने भवघट से तिरने दो धर्मध्यानों के स्वामित्व से सचेलक पद धारण करके वीतरागी तपस्या की और सप्त तत्त्व चिंतन करते हुए पंचम गति हेतु वीतरागी तपस्या की । भवघट से तिरने दो धर्मध्यानों का स्वामित्व लिए तपस्वी ने स्वसंयमधारा और तपस्या हेतु गृह त्यागा । स्वसंयमी ने रत्नत्रय के साथ वीतरागी तपस्या आत्मस्थ होकर की। छत्रधारी राजा ने भी रत्नत्रयी तप सम्मेद शिखर पर निकट भव्य बनकर किया और आत्मस्थता से वीतरागी तपस्या की । तपस्वी चतुर्गति खंडन संकल्प धार करके गुणस्थानोन्नति वाली वीतरागी तपस्या में लीन हुआ। वह संघाचार्य था जिसने चतुराधन करते हुए वीतरागी तपस्या की । (557) (अ) भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों के स्वामी निकटभव्य ने सचेलक बन आरंभी गृहस्थी को त्यागकर तीन धर्मध्यान सहित सप्त तत्व चिंतन करके पंचमगति के लिए वीतरागी तप किया। (ब) भवघट से तिरने दो धर्मध्यान वाले ने चतुराधन सल्लेखी बन निश्चय व्यवहार धर्मी संघाचार्य की शरण ली । चतुराधक रत्नत्रयी कैवल्य उपासक है । रत्नत्रयी निकटभव्य शुक्लध्यानी केवली है । आरंभी गृहस्थ का आराधन भवघट तारक है । Jain Education International 144 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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