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________________ (488) गृही का रत्नत्रयी वातावरण में वीतरागी तपस्वी होना है । (489) जंबूद्वीप में तीन धर्मध्यानों के स्वामी (उच्च श्रावक ) रहते हैं/रहते थे । (490) भवचक (प्रत्येक जीव का अलग-अलग होता है) (युगल बंधु के भवचक्र) को वीतरागी तपस्या से पार किया जाता है (491) दो धर्मध्यानों का स्वामी दूसरे शुक्लध्यान तक की यात्रा तपस्वी बनकर और उत्तरोत्तर पुरुषार्थ बढ़ाकर करता है । (492) दो धर्मध्यानी वह तपस्वी छत्रधारी राजा है/था। उसी के साथ कोई दूसरा तपस्वी आंशिक दृष्ट है। (493) भवघट से पार तिरने दो धर्मध्यानों का स्वामी कैवल्य प्राप्ति के लिए चतुराधन करता है । (494) भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों के स्वामी ने सल्लेखना मरण द्वारा निश्चय धर्म को पाला और भव-भव में क्रमोन्नति वाली वीतरागी तपस्या तथा शुद्धात्माराधना करने दशधर्म सेवी बना । (495) शिखर तीर्थ । (496) आरंभी गृहस्थ का स्वसंयमी बनना । (497) हरेक उत्सर्पिणी अवसर्पिणी में जिन सिंहासन के चारों जिनलिंगियों का अदम्य पुरुषार्थ से निकट भव्यत्व उपार्जन। (498) भवचक्र से पार कराने वाले (चतुर्थ गुणस्थानी ) दो धर्मध्यानों के स्वामी । (499) भवचक्र से पार कराने वाले उत्तरोत्तर पुरुषार्थ और वीतरागी तपस्या । (500/501) उल्टा स्वस्तिक भव पतोन्मुखी है। (502/503)- सही स्वस्तिक भवोन्नति कराने की दिशा सूचक है जो चतुर्गति भ्रमण और पंचम गति भी दर्शाता है। (516) साधक की अंतर्यात्रा । (518). अंतर्यात्रा। (517/520) - चतुर्गति भ्रमण । (521-523) अस्पष्ट। (526) (ब) गुणस्थानोन्नति से शिखर तीर्थ पर वीतराग तपस्या का धारण और वृद्धि चतुराधन सहित । (527) (अ) चतुर्गति से पंचमगति हेतु युगल श्रृंगों पर तीसरे शुक्लध्यानी पुरुषार्थ। page No. cxv 534 -560 (534) त्रिगुप्तिधारी । दो धर्मध्यानों के स्वामी ऐलक ने एकदेश स्वसंयमी बनकर, स्वसंयम धारण गृह त्याग से किया । (535) सल्लेखी, निश्चय-व्यवहारी वीतरागी तपस्वी है जिसने चारों कषायें त्यागकर तपस्या की है। (536) चार नयों से पंचमगति को लक्ष्य रखता आत्मस्थ वीतरागी तपस्वी ढाईद्वीप में दूसरे शुक्लध्यान की प्राप्ति तक वीतरागी तपस्या करता है। हर उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी में यही हुआ है । (537) भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों का स्वामी, निश्चय-व्यवहार धर्म का आराधक, वीतरागी तपस्वी है जो गुणस्थानोन्नति करता हुआ रत्नत्रय पालता है। (538) चार घातिया कर्मों को नाशने वाला सल्लेखी वीतरागी तपस्वी है । 143 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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