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(443) उत्तरोत्तर पुरुषार्थ करने वाला वीतरागी तपस्वी है । (444) भवचक पार करने सल्लेखी चार गतियों को क्षयोपशम से नाश करने का अदम्य पुरुषार्थ करता है । (445) घातिया चतुष्क क्षय करने दो धर्मध्यानों का स्वामी (यथा गुणस्थानी) रत्नत्रयी साधक बना । (446) मन को स्थिर करके ही वीतरागी तपस्या होती है ।
निकट भव्य सचेलक ने आत्मस्थता धारणकर निकट भव्यत्व पा गुणस्थानोन्नति की । (448) पंचमगति के लिए उत्तरोत्तर वीतरागी तपस्या तथा पुरुषार्थी सल्लेखना और चतुराधन करते हैं। /करके देखो । (449) पुरुषार्थी अणुव्रती तपस्वी अपने पैरों (चारित्र) की सभी बेड़ियों को तोड़ चारों धर्मध्यानों सहित चतुराधन करता अपने
वातावरण को श्रेष्ठ बनाता है । चतुराधक तपस्वी स्वसंयमी उपशमी बनकर सल्लेखना तत्परता से करता है । भवघट से पार तिरने हेतु दो धर्मध्यानों के स्वामित्व से केवलत्व तक चतुराधना पहुंचाती है। तीन प्रतिमाधारी अदम्य पुरुषार्थ से तीन धर्म ध्यानों के साथ ही सिद्धत्व (शुद्धत्व) का लक्ष्य रखकर रत्नत्रय साधक तपस्वी
बनता है । (453) तीन धर्मध्यानों का स्वामी शुद्धात्मा का लक्ष्य रखकर रत्नत्रय पालता है । (454) चारों कषायों को त्याग करके आत्मस्थ तपस्वी रत्नत्रय धारकर तीन धर्मध्यानों के स्वामित्व से पुरुषार्थ बढ़ाता है ।
भवचक्र से पार होकर सिद्धत्व पाने आत्मस्थता और एकदेश स्वसंयम आवश्यक है । (456) भवघट से तिरने दो धर्मों का ध्यानी एक देश-स्वसंयमी आरंभी गृहस्थ स्वसंयमी बनकर तीन धर्मध्यानों की भूमिका से
निकट भव्य बन गुणस्थानोन्नति करता है । (457) अदम्य पुरुषार्थी नवदेवताओं का पूजन करते हुए वीतरागी आत्मस्थ तपस्वी बनकर पुनः अदम्य पुरुषार्थ बढ़ा कैवल्य
को स्वसंयम से ही पाते हैं। (458) निकट भव्य पंचाचार करने तपस्यारत हो ढाईद्वीप में एकदेश संयमी बनकर चतुराधन करता है । (459) दो धर्मध्यानों वाला वीतरागी तपस्वी अपनी गुणस्थानोन्नति करके शिखरतीर्थ पर वीतरागी तपस्या धारता है। (460) पंच परमेष्ठी आराधक पुरुषार्थ बढ़ाकर वीतरागी तपस्या करता है । •(461) गृहस्थ भी शुद्ध आत्मा के आराधन से तीन धर्म ध्यानों का स्वामी बनकर वीतरागी तपस्या करता हुआ अपना पुरुषार्थ
उत्तरोत्तर बढ़ाता है। (462) अदम्य पुरुषार्थी वातावरण को निश्चय-व्यवहार धर्मी वीतरागी तपस्या से जोड़कर रत्नत्रय पालता और कैवल्य भक्ति
रखता है। (463) आरंभी गृहस्थ भवचक से पार होने संघाचार्य के पास प्रतिमाएं धारण करता है । (464) आरंभी गृहस्थ सल्लेखना वैय्यावृत्ति करता गुणस्थानोन्नति करने मन को स्थिर करके निश्चय-व्यवहार धर्म की
शरण चारों अनुयोगों की धारणा से लेता है । , (465) भवघट से तिरने दो धर्मध्यानों का स्वामी चतुराधन करता समवशरणी वीतरागी तपस्या तपता है ।
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