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हुए वीतराग तपस्या में लीन हुआ ।
भवचक्र से पार उतरने साधक ने दो धर्मध्यानों के स्वामित्व से रत्नत्रय पालते, संघाचार्य के निश्चय - व्यवहार धर्ममय संयमी आदेश में रत्नत्रय पालते हुए वीतरागी तपस्या की ।
(431) मधुमक्खी / बर्र को मृतक देख तीन धर्म ध्यानों के स्वामी का मन निश्चय-व्यवहार धर्म में लीन होकर विरक्त हो गया
और उसने रत्नत्रयी तपस्वी ऐलक बनकर देशसंयम धारकर ढ़ाई द्वीप में रत्नत्रय पाला और चतुराधन किया ।
तीन धर्मध्यानों से दो शुक्ल ध्यानों तक उन्नति करके घातिया चतुष्क नाश किया जाता है ।
भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों के स्वामी छत्रधारी राजा ने संघाचार्य की शरण में रत्नत्रय धारण कर वीतरागी तपस्या
की ।
पाँचवीं प्रतिमा पुरुषार्थ के द्वारा मन वचन काय से वीतरागी तपश्चरण द्वारा निकट भव्यत्व पाने वाले ने पुरुषार्थ किया
और मोक्ष का भाव रखा ।
निकटभव्य ने सप्त तत्त्व चिंतन से पंचम गति का लक्ष्य रखकर वीतरागी तपश्चरण किया और चारगतियों में भ्रमण को रोकने का प्रयास किया ।
भवचक्र से पार होने दो धर्मध्यानों के स्वामी ने अरहंत पद भाते, पंचमगति की साधना को रत्नत्रय द्वारा साधने और रत्नत्रयी वातावरण बनाकर चार अनुयोगी निश्चय - व्यवहारमय धर्मसंघ की शरण में गया ।
(437) अणुव्रती ने द्वादश तप, द्वादश व्रतों के साथ युगल बंधुओं की तरह किए ।
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भवचक्र से पार उतरकर सिद्धत्व पाने समाधिमरणी चतुराधक ने क्षयोपशम से मांगीतुंगी / कुमारी पर्वत पर अपने आवश्यक करते हुए वीतरागी तपस्या की ।
पुरुषार्थी ने वीतरागी तपश्चरण के लिए सप्त तत्त्व चिंतन करते हुए चतुराधन किया । चतुर्गति भ्रमण को मेटने वीतरागी तपस्वी ने पंचमगति पाने का उद्यम किया ।
पंच परमेष्ठी आराधक पंचम गति की साधना निश्चय - व्यवहार धर्म से करता है ।
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छत्रधारी (राजा) चारों कषायें त्यागकर आरंभी गृहस्थ की स्थिति से तीन धर्म ध्यानों का स्वामित्व लेकर सल्लेखी बना (पंचम गुणस्थानी बनकर ) सल्लेखना ली और चतुराधन करने लगा ।
सल्लेखना का गुणस्थानोन्नति वाला झूला पाने वाले निकट भव्य युगल बंधु) भवघट को दो धर्मध्यानों से पार होने चतुराधन करते रत्नत्रयी साधना से समाधिमरण करते यक्ष हुए और फिर क्रमोन्नति से वीतरागी तपस्या की ।
चारों शुक्लध्यानों के स्वामी स्वयं तीर्थ कुमारी पर्वत से विश्व में धर्म की पताका फहरा रहे हैं । वह पर्वत भी धर्म पताका फहरा रहा था। (यह सैंधव चिन्ह आज भी कुमारी पर्वत पर गुफा में भीमबैटिका कला वाला शैल चित्रांकित है) ।. तपस्वी एकदेश स्वसंयमी है और पंचमगति हेतु चतुराधन लीन है ।
भवघट से तिरने दो प्रतिमाऐं धारण करके दो धर्मध्यानों के स्वामी निकट भव्य ने चतुराधन करते हुए तपस्वी बन आरंभी गृहस्थ को सप्त तत्व चिंतन कराया और आत्मस्थ वातावरण में अरहंत पद भाते संघाचार्य के शरणागत पंचाचार करते
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(442) अदम्य पुरुषार्थी सल्लेखना लेने वाले ने आत्मस्थ होकर वीतरागी तपस्या की और सप्त तत्त्व चिंतन करके सिंद्ध भक्ति
में लीन हुआ ।
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