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(406) स्वसंयमी ने अदम्य पुरुषार्थ से भवचक से पार होने दो धर्मध्यानों के स्वामित्व से अर्धची के रत्नत्रयी पुरुषार्थ से चार
धर्म ध्यान संवारे और संघाचार्य से समीप प्रतिमा धारणकर पंच परमेष्ठी आराधन करने लगा ।
page No.cXIII 407 - 470 (407) (आत्मस्थता के द्वारा दो धर्मध्यानों का स्वामित्व चतुराधन और रत्नत्रयी वीतरागी तप सब प्राप्त हो जाते हैं) अस्पष्ट है। (408) तीर्थकर प्रकृतिवान अदम्य पुरुषार्थी रत्नत्रय को वातावरण में सदैव बनाए रखता है । (409) तपस्वी ढ़ाईद्वीप में सम्यक्त्व बनाए रखते हुए चतुराधन करता है। (410) वीतरागी तपस्वी स्वसंयम को सदैव जागृति से साधे रखता है। पंचमगति उसका लक्ष्य और पंचाचार उसका आचरण
होता है । (411) तीन धर्मध्यानों का स्वामी रत्नत्रय आराधक होता है (पंचम गुणस्थानी ) (412) निकट भव्य सल्लेखना लेकर अष्ट कर्मजन्य चार गतियों को नाशने वीतरागी तपस्या करता है । (413) जिन सिंहासन के छहों पाए जिनलिंगी है (साधु, आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक, क्षुल्लिका एवं 11 प्रतिमाधारी) जो अष्टकर्म
जन्य चतुर्गति नाशने तत्पर हैं । (414) छत्रधारी राजा और आरंभी गृहस्थ भी तीन धर्मध्यानी बनकर बारह भावना भाते हुए वीतरागी तपस्या की ओर मुड़ सकते ।
(415) एकदेश धारी स्वसंयमी बारह भावनाएं भाकर अर्धचकी सा पुरुषार्थ उठाकर और तीर्थ यात्री सा पुण्य बनाकर निश्चय
व्यवहारी वीतरागी तपस्या की भूमिका बना सकता है । (416) चार घातिया कर्म नाश करके भवचक से पार होने दो धर्म ध्यानों का स्वामी गुणस्थानोन्नति करता हुआ शिखरतीर्थ पर
वीतरागी तपस्या कर लेता है । (417) अर्धचकी तीन गुप्ति धारण करके वीतरागी तपस्या करके पंचमगति का लक्ष्य रखते हैं । (418) छत्रधारी (राजा) संघाचार्य की शरण में जाकर (मांगीतुंगी/कुमारी पर्वत/श्रवणबेलगोला युगल श्रृंगी पर) रत्नत्रय का
पुरुषार्थ साधकर वीतरागी तपस्या से अरहंत पद प्राप्ति के लिए पंचाचार करता है । उसका संदेश रत्नत्रयी और
पंचाचारी पुरुषार्थ का ही है । (419) आत्मस्थ वीतरागी तपस्वी निश्चय-व्यवहार धर्मी होकर तपस्यारत रहते हैं, वे पंचाचारी तपस्वी सल्लेखना में वैयावृत्त्य
व्दारा गुणस्थानोन्नति उत्तरोत्तर करते हुए रत्नत्रयी पुरुषार्थ करते हैं । (420) समवशरणी शिखर तीर्थ पर हर उत्सर्पिणी अवसर्पिणी में तीन धर्मध्यानों से निकट भव्य के रूप में छत्रधारी होकर भी
त्रिगुप्ति धारण करके वीतरागी तपश्चरण करते हैं। (421) निकट भव्य सल्लेखी ऐसा तपस्वी है जिसने घर से ही प्रतिमा व्रत धारे थे और अष्ट कर्म नाशने, भवघट तिरने ढाईद्वीप
में सम्यक्त्व धारण करके अपनी प्रतिमा व्रत सुरक्षित रखते हुए पंचम गति के द्वारा मोक्ष धाम के लिए उद्यत हुआ । (422) पंचपरमेष्ठी आराधन और चतुराधन बस यही इष्ट हैं। (423) तीन धर्मध्यानी दिगम्बर तपस्वी बनकर साधक ने चतुराधन करते वीतरागी तपस्या की । (424) भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों के स्वामी ने अणुव्रत के साथ-साथ घर में ही रहते हुए षट् आवश्यक पाले ।।
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