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________________ (390) उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी में अष्ट कर्मजन्य चतुर्गति, वीतरागी तपश्चरण लाती है । (391) रत्नत्रय हर काल में दो धर्म ध्यानों के स्वामी को पंचमगति की ओर प्रेरित करता रहा है और स्वसंयम से जोड़कर वीतरागी तपस्या में लगाता आया है । (392) सल्लेखी दो प्रतिमाधारी रत्नत्रयी है । (393) दूसरे शुक्लध्यान वाले की पंचम गति चतुर्गति नाशक वीतरागी तपस्या से प्राप्त होती है जिसमें अष्टकर्मों का क्षय कराने वाली वीतरागता प्रधान होती है । (394) केवली. तीर्थकर, अरहंत और सिद्ध रूप, यही इष्ट हैं । वीतरागी आत्मस्थता क्षुल्लक (क्षुल्लिका, ब्रह्मचारी) जैसे उच्च श्रावक को सल्लेखना के समय दो धर्मध्यानों से उन्नत करा चार धर्मध्यानों (मुनित्व) में स्थापित कराती है और रत्नत्रय धराती है । (396) (अ) घातिया चतुष्क नाशने हेतु दो धर्मध्यानों का स्वामी वह छत्रधारी राजा है । (ब) अर्धचकी भवघट तिराती है । (397) पुरुषार्थी तीर्थकर के पादमूल में वैयावृत्ति आरंभी गृहस्थ भी रत्नत्रय और चतुराधन के साथ राजसी संरक्षण में रत्नत्रय पालकर चार दुानों को ढाईद्वीप से दूर करता है । (398) अस्पष्ट। (399) जम्बूद्वीप के साधक अष्ट अनंत वैभव पाने तपस्या करते हैं। (400)(अ) भवचक पार करने दो धर्म ध्यानों का स्वामी छत्रधारी राजा, या ऐलक/आर्यिका आत्मस्थता हेतु स्वसंयम धारता है । (ब) पंचमगति के लिए चारों कषायों का त्याग करके आरंभी गृहस्थ रत्नत्रयी वातावरण बनाता और वीतरागी तपश्चरण उत्तरोत्तर बढ़ाता है । (स) तीन धर्मध्यानी आत्मस्थ तपस्वी रत्नत्रयी वातावरण में अर्धचकी होकर भी रत्नत्रय पालने की चेष्टा करते भवघट . से तिरने तीर्थकर प्रकृति हेतु अदम्य पुरुषार्थ करते हैं। (401) भवचक पार करके सिद्धत्व प्राप्त करने रत्नत्रयी जंबूद्वीप में ऐलक/आर्यिका रत्नत्रय से पंचमगति पाने का प्रयास करते हैं फिर भी वह प्रयास छूट-छूट कर पुनः बनता है। रत्नत्रयी तपस्वी उसे शीष साधकर वीतरागी तपश्चरण करते हैं (402) संघाचार्य वीतरागी तपस्वी हैं जिनकी वीतरागी तपस्या मन वचन काय से युत उन्नति कारक सिद्धत्व/शुद्ध आत्मा से उन्हें जोड़ती है तब वे पंच परमेष्ठी की आराधना और चतुराधन करते हैं । (403) अर्धचकी ने पुरुषार्थ द्वारा दो धर्म ध्यानों के साथ पुरुषार्थी छत्रधारी राजा रहते हुए भी चारों कषायों को त्यागा और ढ़ाई द्वीप में सम्यक्त्व प्रसारा। चतुराधन करते हुए तपस्वियों के वातावरण को सुरक्षा देकर वीतरागी तपस्या की ओर मुड़े। (404) संघाचार्य वीतरागी तपस्वी है, जिसने मन वचन काय की वीतरागता से तपश्चरण करते हुए छत्रधारी राजा से ऐलकत्व स्वीकारा और द्वादश अनुप्रेक्षा भाते हुए उपशम द्वारा वीतरागी तपस्या पंचाचार सहित की । (405) भवचक से पार होने और शुद्धात्म रूप पाने त्रिगुप्ति धारी ने पंचमगति हेतु रत्नत्रयी वीतरागता से वैराग्यमय तपश्चरण किया । 138 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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