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________________ (363-364) खण्डित हैं। (365) तीन धर्म ध्यानों के स्वामी ने तपस्वी बनकर स्वसंयम साधा । (366) रत्नत्रय के साथ-साथ ढ़ाईद्वीप में वीतरागी तपस्या स्थापित हुई । (367) भवघट से पार होने दो धर्मध्यानों के स्वामी ने ऐलकत्व स्वीकार कर रत्नत्रय साधा और पंचमगति हेतु उद्यम किया। (368) रत्नत्रयी, तीर्थकरत्व का उद्यमी निश्चय और व्यवहार धर्म का तपस्वी वातावरण वाला साधक है । (369) भवघट से तिरने निश्चय-व्यवहार धर्म की भूमिका में दो धर्मध्यानों के छत्री स्वामी को ढाईद्वीप धर्म साधना प्राप्त कराती है कि कमोन्नति से तपस्वी जीव दूसरे शुक्लध्यान तक की ऊंचाई प्राप्त कर सके । (370) एकदेश तपस्वी महामत्स्य सा उत्तम संहनन पाकर उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालाओं में अष्टकर्म जन्य चार गतियों को काटने में लीन रहने हेतु वीतरागता सहित आत्मस्थ हुआ है । __ मैमथ हाथी भी तब पालतू था जो रस्सों से बंधा होता था । (372) भवघट से तिरने तीन धर्म ध्यानों का पंचम गुणस्थानी इच्छा निरोध स्वसंयम धारता है । (373) तपस्वी ने पुरुषार्थ सहित चारों कषायों को त्यागकर पंचमगति हेतु कर्मक्षयी तपस्या प्रारंभ की तथा दो शुभ ध्यानों के स्वामित्व के साथ रत्नत्रयी उपशम द्वारा वीतरागी तपस्या की । (374) छत्रधारी राजा ने रत्नत्रयी दशधर्म को सेवने वाला वातावरण बनाया और वीतरागी तपस्या में रम गया । (376) तीन धर्मध्यानों के स्वामी ने तपस्वी बनकर वीतरागी तपस्या की। (378) जाप जपते वीतरागी तपस्वी ने पुरुषार्थमय रत्नत्रय साधा । (379) छत्रधारी राजा ने आत्मस्थ ऐलक बनकर पुरुषार्थ से स्वसंयम साधकर पंचपरमेष्ठी की आराधना की । (380) स्वसंयमी ने आत्मस्थ तपस्वी बनकर स्वसंयम धारण करके पुरुषार्थ को उठाया । (381) पुरुषार्थी स्वसंयमी ने ढाईद्वीप में पुरुषार्थ को और उठाया । (382) रत्नत्रयी सप्त तत्त्व चिंतन (मूल श्रमण संस्कृति ) में तीन सिरों के व्यंतरदेव को भी श्रध्दान था। (383) स्वसंयम की भावना भाता छह सिरों वाला व्यंतरदेव । (384) अस्पष्ट। (385) रत्नत्रयी वातावरण में वीतरागी तपश्चरणी ही होता है । (386) गृहस्थ ने पुष्प के अंदर भंवरा फंसा देख मुनिव्रत धारण करके यशस्वी वीतरागी तपस्या की। (387) घातिया कर्मों का नाश करके भवचक से पार होने सल्लेखी ने रत्नत्रयी जीवन को (शाकाहारी) महाव्रती बनकर पंच 'परमेष्ठी आराधन, सप्त तत्त्व चिंतन, नौ पदार्थ अवलोकन, निश्चय-व्यवहार धर्म पालन करते तपस्वी जीवन स्वीकार कर स्वसंयम धारा और गृह त्यागा | (388) पंचमगति के लिए संघाचार्य ने वीतरागी तपश्चरण धारकर पुरुषार्थमय सल्लेखना को जपन और स्वसंयम से साधा। (389) रत्नत्रय का विरोध और मोह की स्थिति (अस्थिरता लाकर त्रिगुप्ति का नाश करती है) आरंभी गृहस्थों के जंबूद्वीप में जीवनचक और संघाचार्य के प्रतिमाधारियों पर भी प्रभाव करते हैं । 137 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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