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________________ (341) (342) (243) (344) (345) (346) (347) (348) (349) (350) (351) (352) (353) (354) (355) (356) (357) (358) (359) (360) (361) एक गृहस्थ भवचक से पार होने दो धर्मध्यानों का स्वामित्व ले दशधर्मों का पालन करता हुआ वीतरागी तप करता है दूसरे शुक्लध्यान द्वारा घातिया चतुष्क क्षय करते आत्मस्थ तपस्वी को देख देशव्रती आत्मस्थ पक्षी की तरह निरीह बनकर निश्चयी व्यवहार धर्म के पक्षों का चिंतन करते वीतरागी तपस्या में लीन होते हैं । केवली जिन का ध्यान करके अणुव्रती आठ मदों को त्यागकर वीतरागी तपस्या द्वारा पंडितमरणी सल्लेखना मोक्ष गामी कायोत्सर्ग द्वारा शिखरतीर्थ पर करते हैं । भवचक्र से पार होने दो धर्मध्यानों के स्वामी ने सप्त तत्त्वों का चिंतन करते हुए पंचम गति का साधन बनाने वीतरागी तपस्या की । भवचक्र से पार होने सल्लेखी ने छत्रधारी राजा के रूप में देशव्रती संयमी बनकर आरंभी गृहस्थ की स्थिति से तीन धर्मध्यान प्राप्त करके इच्छा निरोध स्वसंयम अपनाया । वीतरागी खड़गासित सल्लेखी आत्मोन्नति की सीढ़ियाँ पार करने वाला दो धर्मध्यानों का स्वामी था जिसने पंच परमेष्ठी आराधन करके रत्नत्रय संवारा है । प्रतिमा पुरुषार्थ धारण करके व्यक्ति ऐसा ही निरीह बनने का प्रयत्न करता है जैसा कि एक पक्षी, जो वीतरागी तप को तपते हुए सल्लेखना तत्पर रहता है और ऐलक / आर्यिका बनकर स्वसंयम धारता है। स्वसंयमी अदम्य पुरुषार्थ द्वारा पंचमगति का साधन यदि करता है तब वह तपस्वी बनकर चारों कषाऐं त्यागता हैं । वह सरीसृपों / डायनासर का काल था जब तपस्वी सल्लेखी बन चार गतियां नाशने आत्मस्थ होकर तीर्थंकर प्रकृति कर्माजन के लिए दो धर्मध्यानों का स्वामी होते हुए छत्रधारी राजा जैसी सल्लेखना तत्पर थे । छत्रधारी तपस्वी सम्यक्त्वी बनकर निकट भव्यता पाता और गुणस्थानोन्नति करता षट् द्रव्य चिंतन करता है। भवघट से तिरने दो धर्मध्यानों का स्वामी ऐलक अथवा आर्यिका बनकर पुरुषार्थ उठाते हुए वीतरागी तपस्या करता है। पुरुषार्थी रत्नत्रयधारी है। व्यंतरदेव । कुछ नहीं । निकटभव्य उपशमी गृहस्थ है जिसने दो धर्मध्यानों से वीतरागी तप किया । वह पूर्व में व्यंतर देव भी रहा । व्यंतरदेव । सल्लेखी रत्नत्रयधारी चतुराधक निकट भव्य है जिसका रत्नत्रय एक गति में छूटा किंतु उसने पुनः संभलकर दूसरे शुक्ल ध्यान तक की तप यात्रा तय कर ली है । अस्पष्ट । पुष्पदंतनाथ का लांछन । भवघट को भेदने वाला आत्मस्थ तपस्वी दशधर्म सेवी कमोन्नति से अब रत्नत्रयी निश्चय-व्यवहार धर्मी संघाचार्य है । अदम्य पुरुषार्थ उठाकर सल्लेखी ने तीन धर्म-ध्यानों के साथ रत्नत्रय संभाला । page No. CXII (362) सल्लेखी ने रत्नत्रय धारकर जम्बूद्वीप में आत्मस्थ होते हुए स्वसंयम संभाला और रत्नत्रयी वातावरण बनाया । Jain Education International 136 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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