________________
page No.CXI326.361
(326) भवघट तिरने हेतु दो धर्मध्यानों का स्वामी सम्यक्त्वी स्वसंयमी अणुव्रती हो अथवा छत्रधारी राजा, आरंभी गृहस्थ की भूमिका
से उठकर तीन धर्मध्यानों का स्वामी बनकर इच्छा निरोध स्वसंयम द्वारा करता है । (327) भवचक से पार उतरने हेतु दो धर्मध्यानों का स्वामी आत्मस्थ तपस्वी होकर स्वसंयम को इच्छा निरोधी बनाता है । (328) सल्लेखना झूले में चल रहा सल्लेखी अदम्य पुरुषार्थी तीर्थकर प्रकृति उपायी तपस्वी है जिसने दो धर्मध्यानों के स्वामित्व
की भूमिका से तीर्थकर होने का पुरुषार्थ तथा पंचमगति हेतु भवचक से पार अदम्य पुरुषार्थ वाली सल्लेखना को
उठाया और चतुराधन में लीन हुआ । (329) (अ) अडिग जिनलिंगी श्रावक कछुए की तरह अपने उपयोग को (आत्मा की ओर) अंदर की ओर करके वीतराग
तपस्या आत्मस्थता से करते हुए सिद्ध/शुद्ध आत्मा की ओर लक्ष्य रखकर स्वसंयमी बना ।
(ब) रत्नत्रयी जंबूद्वीप के वातावरण में मकर/कर्म फल चेतना से भक्ष होने पर भी तपस्वी /मछली अडिग है। (330) रत्नत्रयी वातावरण में केवली की शरण में चतराधन देख दो धर्मध्यानों के स्वामी भी महामत्स्य सा संहनन पाकर अदम्य
पुरुषार्थ उठाते वीतरागी तपश्चरण धारण करते हैं । (331) चतुराधकी आरंभी गृहस्थ दो धर्मध्यानों के साथ स्वसंयमी बनकर वीतरागी तपस्या करता है । (332) काल द्रव्य की तरह षट् द्रव्यों का श्रद्धानी, निकट भव्य तीर्थकर पद भावी सल्लेखना धारण करके सम्यक्त्वी तपस्वी
बनने चारों कषाएँ त्यागकर चतुराधन करता है । (333) अष्टकर्मजन्य चतुर्गति भ्रमण को नाशने प्रतिमा पुरुषार्थ धारक तीन धर्म ध्यानों का स्वामी बनकर वीतरागी तपस्या
द्वारा निकट भव्यत्व पाता और वीतरागी तपस्या बढ़ाता है ।
भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों के स्वामी ने पंचमगति के लिए द्वादश तप तपते वीतरागी तप किया । (335) भवचक से पार होने पुरुषार्थी सल्लेखी ने निकट भव्यत्व पाकर रत्नत्रय उठाया और वीतरागी तपस्या को महाव्रत से
जोडा । (336) मुनि एवं आर्यिका गुणस्थानोन्नति का अंतिम लक्ष्य तीर्थकर प्रकृति पाते हैं (पुण्य) ताकि उनका रत्नत्रय जम्बूद्वीप में
पंचपरमेष्ठीमय होकर उनके वीतरागी तपश्चरण में निग्रंथता (12 वें गुणस्थान ) का निखार लावे | (337) दश प्रतिमाएं धारण करने वाले गुणस्थानोन्नतिशील आरंभी गृहस्थ ने रत्नत्रयमय वातावरण बनाया और घर में ही गुण
ग्राहयता हेतु निश्चय-व्यवहार धर्म की शरण लेकर भवचक से पार होने के लिए सिद्ध प्रभु/शुद्ध आत्मा की शरण ली (338) युगल तपस्वियों ने पक्षियों की तरह निरीह होकर तप करके घातिया चतुष्क का क्षय किया। (339) तीन धर्मध्यानों के स्वामी उच्च श्रावक ने स्वसंयमी बनकर ऐलक/आर्यिका जैसा वीतरागी तपश्चरण किया । (340)(अ) भवघट से तिरने दो धर्मध्यानों का स्वामी, सल्लेखना का गुणस्थानोन्नति वाला झूला पाने आरंभी गृहस्थ की स्थिति से
भी पुरुषार्थ उठाकर साधना करता है । (ब) पंचमगति का साधक महाव्रती ही होता है ।
135
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org