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(308) आत्मस्थ तपस्वी (युगल बंधुओं) की तरह चारों कषायें त्यागकर रत्नत्रयी वातावरण बनाते हैं । (309) षट् द्रव्यों का श्रद्धानी तीर्थकर प्रकृति का पुरुषार्थी साधक सिद्धत्व (शुद्ध आत्मा ) की शरण ले महामत्स्य सा श्रेष्ठ संस्थानी
तपस्वी जिनसिंहासन का पाया. एक जिनलिंगी बन जाता है । (310) संघाचार्य की शरण में आरंभी गृहस्थ भी दो धर्म ध्यानों के स्वामित्व से उठकर चार धर्मध्यानी चतुराधक तीर्थकर प्रकृति
कर्मउपायी और रत्नत्रयी तपस्वी बनकर वीतराग तपस्या की ओर मुड़ते हैं । (311) चारों घातिया कर्मों का नाश पंच परमेष्ठी आराधन, पुरुषार्थ और वीतराग तपस्या से होता है । (312) पुरुषार्थी वातावरण पुरुषार्थी जिम्मेदार मुनि ही दे पाता है । (313) ऐलक/आर्यिका भी सम्यक्त्वी तपस्वी होते हैं । (314) चंचल हृदय रागमय होकर भी दशधर्मों का सेवन करते करते दो धर्म ध्यानों को पाकर षट् द्रव्य आस्थावान व्रती और
तपस्वी बनकर स्वसंयम बनाता है । (315) लोकपूरणी सल्लेखी दो धर्मध्यानों से भी संघाचार्य की शरण ले रत्नत्रय धारते निश्चय व्यवहारी संघाचार्य की शरण में
रहते हैं (316) चारों कषायों को त्याग करके छत्रधारी राजा तपस्या प्रारंभ करता है । (317) तीन धर्मध्यानों वाले वातावरण में छत्रधारी (भगवान् “जिनेश" की भक्ति करता) राजा भी तपस्या कर लेता है, और
गुणस्थानोन्नति करता हुआ उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल भवान्तरों में निकाल देता है । (318) भवचक से पार उतरने पंचाचार करते भव्य का वातावरण वीतरागी तपस्या का होता है । (319) अष्टापद की तरह अपराजेय रत्नत्रयी चतुराधक पंचमगति भावी निकट भव्यत्व पाकर गुणस्थानोन्नति करता है। (320) एकदेश तपस्वी और क्षत्री तपस्वी दोनों ने पंचमगति के लिए चतुर्गति भ्रमण छेदने रत्नत्रयी वीतरागी तप धारा । (321)(अ) पुरुषार्थ बढ़ाकर अरहंत के चरणों में रहने वाले छत्रधारी तथा सामान्य तपस्वी पंचमगति हेतु गुणस्थानोन्नति करते
चतुर्गति भ्रमण को नाश करने सल्लेखना लेकर केवलत्व पाने वीतरागी तपस्या करते हैं ।
र धर्मध्यानों के स्वामी (दिगम्बर मुनि पुरुष) तपस्वी निकट भव्यत्व से ढाईद्वीप को चारों कषायों रहित बनाते हैं (322) भवघट से तिरने दो धर्मध्यानों के स्वामी रत्नत्रयी उपासना लीन जम्बुद्वीप में शिखरतीर्थ पर जाकर निकटभव्य बनते,
पंचाचार करते, रत्नत्रयधारी तपस्वी बनकर वीतरागी तप धारते हैं। (323) खरगोश की तरह भले धीमी गति से ही किंतु कर्मों का घेरा लगातार काटते रहने वाला व्यक्ति दोनों र्दुध्यानों को दूर
करता है । वह छत्रधारी राजा हो या सामान्य तपस्वी, नदी के किनारे भी वह वीतरागी तप तपता रहता है। (324) गृहस्थ भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों का स्वामी बनकर दो शुक्लध्यानों तक की तपस्या पुरुषार्थी (युगल बंधुओं की
तरह) तपस्वी बनकर स्वसंयम धारण करके करता है । (325)(अ) पुरुषार्थी अरहंत उपासक प्रत्येक उत्सर्पिणी/अवसर्पिणी में निश्चय-व्यवहार धर्म द्वारा चारों अनुयोगों के प्रयोग से
दो धर्मध्यानी होकर भी छह/षट आवश्यक पालन करके साधना प्रारंभ करता है। (ब) जंबूद्वीप की तरह ही पुरुषार्थवान ढाईद्वीप में इस अवसर्पिणी में अरहंत आराधक, वीतरागी पंचाचारी तपस्वी बनकर . रत्नत्रयी वीतराग तप तपते हैं |
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