SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (279) चतुराधक सल्लेखी वीतरागी तपस्वी है। (280) लिपि रहित । (281) दो धर्मध्यानों के स्वामित्व से भी रत्नत्रय संभव है । (282) तीन धर्मध्यानों के स्वामी निकटभव्य ने चतुराधन किया । (283) छत्रधारी राजा क्षयोपशमी वीतरागी तपस्वी है । (284) लिपि रहित । (285) चार घातिया कर्मों को नाशने सल्लेखी तीर्थकर प्रकृति वाले ने वीतरागी तपस्या की । (286) भवचक से पार होने रत्नत्रयी वैय्याव्रती सल्लेखी ने वीतरागी तपस्या अरहंत पद तक पहुंचाने वाली रत्नत्रयी साधना पंच परमेष्ठी आराधना और स्वसंयम से की। (287) अरहंत उपासक चार अनुयोगी निश्चय व्यवहार धर्मी, चतुर्विध संघाचार्य होते हैं । (288) सर्प जैसे तिर्यच ने भी आत्मस्थ होकर वीतरागी तपस्या गुणस्थानोन्नति हेतु शिखर तीर्थ पर की । (290) दो धर्मध्यान भी तपस्वी की भूमिका बनाते हैं । (291) भवघट तिरने दूसरे शुक्लध्यान तक की स्थिति आवश्यक है (12 गुणस्थान तक) । (292) संपूर्ण संघ चारों कषायों का त्यागी, प्रत्याख्यानी, यथाख्याति है । (293) निकट भव्यत्व आत्मोद्धारक है। (295) सम्यक्त्वी ने चतुराधकी सल्लेखना लेकर वीतरागी तप किया और पंचम गति का साधन केवलत्व को निश्चय-व्यवहार धर्म से किया। (296) दो धर्मध्यानों का स्वामी पुरुषार्थी सल्लेखी वीतरागी तपस्वी है । (297) अस्पष्ट, बनावटी कला अंकन प्रतीत होता है । (298) भवघट से तिरने निश्चय-व्यवहार धर्मी जन वीतरागी तपस्या को उत्तरोत्तर बढ़ाते हैं । (299) रत्नत्रयी वातावरण वीतरागी तपस्वियों का ही होता है । (300) निश्चय व्यवहार धर्मी संघाचार्य रत्नत्रय पालते वीतराग तपस्वी होते हैं। (301) स्वसंयमी इच्छा निरोधी पंच परमेष्ठी की आराधना करते रत्नत्रय पालते हैं (302) (अ) पुरुषार्थी गृहस्थ सल्लेखी को वातावरण सीमित करके रत्नत्रय पालना चाहिए । (ब) अंतहीन भटकन से उबारने वाला एक मात्र मार्ग वीतरागी तपस्या है । (303) कल्पकाल से ही पिच्छीधारी निश्चय व्यवहार धर्मी पंच परमेष्ठी की आराधना करते सिद्ध की शरणागत हैं । (304) लिपि रहित किन्तु भैंसे (वासुपूज्य का लांछन) वाली सीले प्रारंभ। इससे पूर्व युनीकार्न वाली थीं । (305) अर्धचकी भी पंचमगति की भावना भाते, भवघट तिरने वीतराग तप तपते हैं (306) प्रतिमाधारी घर में ही सप्त तत्व चिंतन करते पक्षी की तरह पुरुषार्थ उठाते तीन धर्मध्यानों का आधार ले तपस्वी सी साधना करने छत्रधारी की तरह निकट भव्यत्व पाकर अपने वातावरण को रत्नत्रय हेतु अनुकूल बना उठते गिरते हैं। (307) अपठ्य, कला बनावटी प्रतीत होती है । 133 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy