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(249) षट् द्रव्य चिंतन रत्नत्रय को दृढ़ करता है । (250) अंकन रहित। (251) एक तपस्वी आरंभी गृहस्थ की भूमिका से उठकर तीन धर्मध्यानी बन स्वसंयम धारण करके पंच परमेष्ठी की आराधना
करता है । (उनके गुणों का चिंतन करता है) (252) जाप करना ही वीतराग तपस्या को दृढ़ करता है। (253) (अ) निश्चय-व्यवहार धर्म की शरण ले उत्सर्पिणी अवसर्पिणी में वह शुद्धात्म श्रद्धान से आत्मस्थ हो केवली के पादमूल .
में शिखर तीर्थ पर जाकर वीतरागी तपस्या करता है।
(ब) तीन धर्मध्यानों का स्वामी गृह में ही उत्सर्पिणी अवसर्पिणी में भी रहा है । (254) आत्मस्थता एकदेश तपस्वी को स्वसंयमी बनाती है । (255) भवचक्र/कालचक्र (में जीव अनादि काल से भटक रहा है) (256) अंकन नहीं । (257) क्रोध मान माया को त्यागकर ढाईद्वीप में वीतरागी तपस्वी तपोन्नति करते हैं। pace NO.CK 260 - 325 (258-259) कुछ नहीं । (260) गुणस्थानोन्नति परक वैय्यावृत्ति हेतु सल्लेखना का झूला थामे तपस्वी । (261) सम्यक्त्वी की स्वसंयम साधना | (262) गृहस्थ का महामत्स्य जैसा संहनन वाला वीतरागी तप एवं पंचमगति साधना । (263) तीर्थकर प्रकृति उच्च श्रावक व्दारा दो धर्मध्यानों से ही तप प्रारंभ हो वीतराग तप से होती है। (265) संघाचार्य की शरण ले सल्लेखी ने तीर्थंकर प्रकृति बांधी। (266) पंचाचार व्दारा स्वसंयमी साधक ने भवचक्र पार करने दूसरा शुक्लध्यान पाया। (267) सल्लेखी हर उत्सर्पिणी अवसर्पिणी में हुए हैं। (268) दशधर्म पालन और निश्चय व्यवहार धर्मी चतुर्विध संघाचार्य की शरण ही तारक हैं। (269) पंचपरमेष्ठी आराधक ने तपस्वी बन निकट भव्यत्व पाया और यथाख्यात गुणस्थानोन्नति की। (270) तीन धर्मध्यानी रत्नत्रय पालता है। (271) तितली जैसे चंचल मन को स्थिर करें। (273) नवदेवता पूजन दो धर्मध्यानों से भी किया जाता है (274) भवघट से तिरने दो धर्म ध्यान भी कमशः केवली पद दिला देते हैं। (275) सल्लेखी आर्यिका तीन धर्म ध्यानों के स्वामित्व से पुरूषार्थ बढ़ाकर वीतरागी तप (अगले भव में) तपने तत्पर है । (276) चार आराधना लीन अष्टापद जीव जैसा दृढ़ अपरास्त होने वाला. चार धर्मध्यानों का स्वामी, साधक मुनि है (277) छत्रधारी राजा पंचाचारी तपस्वी बनकर स्वसंयमी बना । (278) अस्पष्ट
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