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(223) लिपि अंकन नहीं । (224) रत्नत्रयी वातावरण को उन्नत पुरुषार्थी वीतरागी तपस्या से जोड़ते हैं । (225) अदम्य पुरुषार्थ केवली पद के लिए आत्मसंयमी ही करता है । (226) वैयावृत्ति सल्लेखना और वीतरागी तपस्या ही इष्ट हैं । (227) भवभीत अष्टकर्मों को नाशने कछुए की भांति षद्रव्यों का चिंतन करके रत्नत्रय पालता और षट् आवश्यकों को युगल
बंधुओं की तरह करता है। (228) आरंभी गृहस्थ दो धर्मध्यानी पक्षी की भांति चार अनुयोगी, निश्चय-व्यवहारी चतुर्विध संघाचार्य की शरण में जाते हैं। ___ भवघट से तिरने दो धर्मध्यानों के स्वामी (चतुस्थानी गृहस्थ ), चार धर्मध्यानी (सप्तम गुणस्थानी) रत्नत्रयी बन जाते हैं
(महाव्रत धारण कर लेते है)। (230) ढाईद्वीप में दो धर्मध्यानों का स्वामी वीतरागी तपस्वी और महाव्रती बनने हेतु पंचपरमेष्ठी आराधन से प्रारंभ करता है (231) पुरुषार्थमय सप्त तत्त्व चिंतन पुरुषार्थ बढ़ाते हुए वीतरागी तप से जोड़ता है । (232) भवघट से तिरने दूसरे शुक्लध्यान का स्वामी पंचाचारी सल्लेखना करते हुए भी वीतरागी तपस्यारत रहता है । (233) निकट भव्य सल्लेखी, पंचमगति की साधना वीतरागी तप और निश्चय-व्यवहार धर्माचार सहित करता है । (234) पुरुषार्थी सल्लेखी, आत्मस्थता से वीतरागी तपस्या दस धर्म पालते हुए वीतराग तप तपता है । (235) अष्टकर्म जन्य चतुर्गति भ्रमण का सल्लेखी छत्रधारी राजा, ऐलक/आर्यिकादि चारों कषायें त्यागकर तपस्या करते हैं। (236) आत्मस्थता और वीतरागी तप ही श्रेष्ठ हैं । (237) (अ) घातिया चतुष्क क्षय हेतु तीर्थंकर सल्लेखी तपस्वी को महामत्स्य जैसा संस्थान वीतरागी तपस्या हेतु प्राप्त हुआ।
(ब) एक पक्षी की तरह निरीह किंतु रत्नत्रयी वातावरण वीतरागी तपस्वी का होता है। (238) चतुर्गति भ्रमण को नाशने वाले वातावरण में गुणस्थानोन्नति हो जाती है । (239) भवघट से तिरने दो धर्मध्यान भूमिका हेतु परमावश्यक हैं । (240) षट् आवश्यकरत आरंभी गृहस्थ भी कभी घातिया चतुष्क का नाश क्रमोन्नति से कर लेता है । (241) लिपि अंकन खण्डित है। (242) अवसर्पिणी के मध्य में दशधर्म व्रत पालने वाले पंचमगति की भावना भावी महाव्रती होते हैं । (243) षट् द्रव्य चिंतन और रत्नत्रय धारण ही श्रेय है । (244) मन की स्थिरता गुणस्थानोन्नति कराती है । (245) निकट भव्य भी भवघट से तिरने वीतरागी दिगम्बरी तपस्या करता है । • (246) भवघट से तिरने दो धर्मध्यानों के स्वामी चार धर्मध्यानों के स्वामी मुनि महाराजों की शरण में बैठ चतुराधन करते हैं। (247) (अ) दो धर्मध्यानी आरंभी गृहस्थ आत्मस्थ पिच्छी धारियों की शरण में जा रत्नत्रय धार पर्वत शिखरतीर्थ पर ठहरता है। .
(ब) वीतरागी तपस्वी निकट भव्य हैं। (248) बारह व्रत, बारह तप साधते हुए युगल बंधुओं ने तीन धर्मध्यानों की स्वामित्व स्थिति से सप्त तत्त्व चिंतन करते आत्म
साधना की ।
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