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________________ (198) निश्चय-व्यवहार धर्मस्थ भक्त चतुराधक तपस्वी, स्वसंयमी होता है । (199) छत्रधारी तपस्वी (राजा तपस्वी), निकटभव्य, वीतरागी तपस्या करता है । (200) भवचक्र से पार होने दो धर्मध्यानों का स्वामी मन को स्थिर करके वीतरागी तपस्या करता है । (201) कैवल्य के लिए शिखरतीर्थ पर वीतरागी तपस्या की जाती है । (202) अरहंत पद के लिए आरंभी गृहस्थ और छत्रधारी राजा दोनों ही भावना भाते हैं । (203) भवघट से तिरने वाले तीर्थंकरों और सिद्धों ने चार गतियों को रत्नत्रय और चतुराधन से पार किया है। (204) रत्नत्रयी युगल बंधु (कुलभूषण-देशभूषण ) पंचपरमेष्ठी आराधक थे । (205) सुमर्यादित ढाई द्वीप में चार अनुयोगी चतुर्विध संघाचार्य निश्चय व्यवहार धर्मी होते हैं । (206) दो धर्मध्यानों का स्वामी भी अपने वातावरण से समवशरण में पहुँचकर वीतरागी तपस्या करता है । (207) मुर्गे की बांग वाला ब्राह्म मुहूर्त चार धर्मध्यानों के स्वामी रत्नत्रय से बिताते हैं । (208) सम्यक्त्वी तपस्वी पुरुषार्थ उठाते हुए वीतरागी तपस्या करता है। (209) (1) दो धर्मध्यानों वाला वातावरण तीन धर्मध्यानों के स्वामी पंचम गुणस्थानियों को षट् आवश्यकों के प्रति जागृत करता एवं रत्नत्रयी वैराग्यमय वीतरागी तपस्या के लिए प्रेरित करता है । (2) पंचमगति के लिए महाव्रती वीतरागी तपस्या करते हैं । (211) समाधिमरणी सल्लेखी ने अगले भव में तपस्या करके पुनः सल्लेखना समय सप्त तत्त्व चिंतन करके पंचमगति का साधन बनाने वाली वैराग्यमय तपस्या की । (212) पुरुषार्थी सल्लेखी वीतरागी तपस्या से पंचमगति का साधन वीतरागता से बना लेता है (213) छत्रधारी (राजा) भी रत्नत्रयी शासन में वीतरागी तपस्या तपते हैं ।। (214) लोकपूरणी केवली और अरहंत दूसरे शुक्लध्यान के ध्यानी तपस्वी रत्नत्रय आराधक महाव्रती वीतरागी तपस्या को निश्चय-व्यवहार धर्म से तपते हैं । (215) भवघट से तिरने त्रिगुप्ति धारण कर वीतरागी तपस्वी ने ढाईद्वीप में दूसरे धर्म ध्यान के स्वामी को भी वीतराग तपस्या की ओर मोड़ा । (216) लिपि अंकन रहित ।। (217) रत्नत्रयी साधना और वीतरागी तपस्या यही जीवन का लक्ष्य हो । (218) अरहंत भक्ति महाव्रती को निश्चय-व्यवहारमय धर्म से संघाचार्य की शरण में ले जाती है । (219) पंचमगति के लिए पंचपरमेष्ठी का ज्ञान न रखने वाला पुरूषार्थी पक्षी भी भावना भा (सकता) ता है । तीन धर्मध्यानों वाले भी रत्नत्रय (पंचम गुणस्थान) तक की उन्नति कर सकते हैं । (221) भवचक से तिरकर सिद्धत्व/शुद्धत्व की ओर ढाईद्वीप में से ही जा सकते हैं ।। (222) गुणस्थानोन्नति, वीतरागी तपस्या, आत्मस्थता वाले को दो शुक्लध्यान की ओर ले जाने में संघ शीर्ष के चरण, रत्नत्रय और निश्चय-व्यवहार धर्म आत्मा के संरक्षक बनते हैं । । 130 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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