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________________ (174) सर्पसीढ़ी खेल जैसी गुणस्थानोन्नति करते सल्लेखी ने दो धर्मध्यानों की भूमिका से संघाचार्य की शरण ली और रत्नत्रय को पालने लगा। (175) वीतरागी आत्मस्थ तपस्वी 15 प्रमाद रहित बनकर 15 योगों को टालकर रत्नत्रयी जम्बूद्वीप में रत्नत्रय और चतुराधक बनकर साधना करता है। (176) रत्नत्रयधारी तपस्वी एवं जिनसिंहासन के जिनलिंगी, अदम्य पुरुषार्थ से स्वसंयम धारते हैं। (177) षट् द्रव्य चिंतक चारों कषायों को त्याग कर तपस्वी बनते हैं। (178) भवचक से पार होने दो धर्मध्यानों के स्वामी चार अनुयोगी निश्चय-व्यवहार धर्मी संघाचार्य की शरण में जाकर रत्नत्रय दशधर्म का पालन करते वीतरागी तप तपते हैं । (179) महामत्स्य सा उत्तम संहनन पाकर कैवलत्व की प्राप्ति आत्मस्थ वीतरागी तपस्वी तीन धर्मध्यानों से प्रारंभ हो जाती है और चतुर्गति भ्रमण को वीतराग तपस्या द्वारा मेटा जाता है। (180) चतुर्गति भ्रमण नाशने दशव्रतों को पालते युगल बंधुओं जैसी दूसरे धर्मध्यान से सचेलक साधकों ने तपस्वी बनकर निकट भव्यता पाई। (181) भवघट से तिरने दो धर्मध्यानी आरंभी गृहस्थ ने महामत्स्य सा संहनन पाकर वीतरागी तप किया । (182) बर्र जैसी लगन से तद्भवी मोक्षार्थी ने आत्मस्थ वीतरागी बन पंचाचारी छत्र धार तपस्या की । (183) गृह से ही शाकाहार अपना कर आत्मस्थी ने वीतरागी तपस्या के लिए महाव्रत'धार वीतराग तप किया। (184) लिपि रहित। (185) अरहंत पद के लिए इस अवसर्पिणी में पुरुषार्थी ने तीर्थकर प्रकृति बांधी। '(186) अदम्य पुरुषार्थी ने "तीर्थकर प्रकृति" के लिए पुरुषार्थी सल्लेखना धारकर शिखरतीर्थ पर भवचक्र से पार होने का उद्यम किया । (187) अरहंत की शरण में रत्नत्रयी सल्लेखी ने वीतरागी तपस्या की । (188) निकट भव्य आत्मस्थ तपस्वी अपने वातावरण को पुरुषार्थ से वीतरागी तपस्या की ओर ले जाता है । (189) भवचक्र से पार होने सल्लेखी ने अरहंत और तीर्थकर पद पाए । (190) अवसर्पिणी के मध्य में पुरुषार्थी अर्धचकी ने रत्नत्रयी साधना करके त्रिगुप्ति द्वारा रत्नत्रयी तपस्या की । (191) अरहंत की शरणागत मुनि एवं आर्यिका अपनी गुणस्थानोन्नति करते स्वसंयमी बनकर पुरुषार्थी सल्लेखना धारते हैं और ... घातिया चतुष्क क्षय करके तीसरे शुक्लध्यान को पाकर सिद्धत्व की ओर बढ़ते हैं । page No. CIX 192 - 257 (192) भवचक्र से पार होने सल्लेखी ने पंचमगति हेतु वीतरागी तपस्या को उन्नत किया । (193) अष्टकर्म जन्य चतुर्गति का वातावरण संसारी ही होता है। (194) महामत्स्य और पशु सारे उपसर्ग पक्षियों की तरह झेल लेते हैं । (195) रत्नत्रयी सल्लेखी, वीतरागी, तपस्यावान हर उत्सर्पिणी अवसर्पिणी में हुए हैं । (197) शिखर तीर्थ पर महाव्रती रहते हैं। 129 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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