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________________ (149) चार गतियों को हटाने सल्लेखी ने निश्चय-व्यवहार धर्म के द्वारा सम्यक्त्वी तपस्वी बन आत्मस्थता ली और पुरुषार्थ बढ़ाते हुए वीतरागी तपस्या से सल्लेखना का पुरुषार्थ किया । (150) सल्लेखी भवान्तरों में रत्नत्रयी दूसरे शुक्लध्यान का स्वामी बना जिसने शाकाहारी बनकर वीतरागी तपस्या की है। . (151) स्वसंयमी चतुराधक, कैवल्य भावी है जिसने दूसरे धर्म ध्यान के स्वामित्व से क्रमोन्नति से पंचाचार करते तपस्या की और घातिया चतुष्क नाशने वीतरागी तपस्या की । (152-153) खण्डित है । (154) तपस्वी निकट भव्य वीतरागी साधक है । (155) सल्लेखी वीतरागी जिन शासन द्वारा संरक्षित आर्यिका एवं तपस्वी हैं जिन्होंने स्वसंयम धारा । (156) सम्यक्त्वी आत्मस्थ तपस्वी है जिसने चारों कषाएँ त्याग कर बारह भावना भाते वीतरागी तप किया है। (157) भवघट से तिरने वाला दो धर्म ध्यानों का स्वामी पंच परमेष्ठी आराधक एवं रत्नत्रयधारी था । (158) भवधट से तिरने के लिए दो धर्म ध्यानों के स्वामित्व से छत्रधारी राजा (छत्री ) ने निकट भव्यत्व पाकर बाधा के रहते भी गुणस्थानोन्नति की। (159) दशधर्मों और व्रतों को साधते हुए आत्मस्थ वीतरागी साधक ने चौथे धर्मध्यान और रत्नत्रय की साधना की । (160) पुरुषार्थी सल्लेखी ने आत्मस्थ वीतरागी तपस्या द्वारा शिखरतीर्थ पर वीतरागी तपस्या द्वारा अरहंत पद पाया। . (161) रत्नत्रयी जम्बूद्वीप में जिनशासन के जिनलिंगी पुरुषार्थी,मन को संयमित करने वाले आत्मस्थ,वीतरागी तपस्वी होते हैं। (162) भवघट से पार उतरने, सिद्धत्व पाने, सल्लेखी ने वैयाव्रत्य का झूला पाया (सेवा पाई) और चारों कषायों को त्यागकर निश्चय-व्यवहार धर्म की शरण लेकर वीतरागी तपस्या की। (163) गुणस्थानोन्नति करते हुए शिखरतीर्थ पर छत्रधारी स्वसंयमी (राजा) ने पंचपरमेष्ठी की आराधना की । (164) खण्डित है। (165) वातावरण को सहेजते युगल तपस्वी बंधुओं ने महाव्रत धारण करके दो धर्मध्यानों के स्वामित्व की स्थिति से ही सम्यक्त्व संभाला था। (166) जम्बूद्वीप में रत्नत्रय पालन। (167) रत्नत्रयी जम्बूद्वीप में वैराग्य तप इच्छुक आरंभी गृहस्थ। (168) अरहंत की शरणागत आरंभी गृहस्थ तीन धर्मध्यान युत होकर इच्छा निरोध करते हैं। (169) जम्बूद्वीप और धातकीखण्ड में वीतराग तपस्वी तप करते हैं। (170) निकटभव्य सल्लेखी आत्मस्थ तपस्वी, आरंभी गृहस्थ तीन धर्मध्यानी है जिसने स्वसंयम धारा। . (171) अरहंत भक्ति वाले निश्चय व्यवहारधर्मी संघाचार्य है। (172) पुरुषार्थी महाव्रती पंचमगति इच्छुक वीतरागी तपस्वी है जिसने निश्चय व्यवहार धर्म की शरण लेकर तपस्या हेतु इच्छा निरोधी स्वसंयम स्वीकारा। (173) रत्नत्रयी जम्बूद्वीप में सम्यक्त्वी तपस्वी इच्छानिरोधी और पंचाचारी है। 128 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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