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________________ में वीतरागी तपस्या करके प्राप्त करते हैं । (130) दो धर्मध्यानों के स्वामित्व से दूसरे शुक्लध्यान तक के स्वामित्व की यात्रा रत्नत्रय के सहारे नदी तट पर तीर्थंकर के पादमूल में तप करते तपस्वी को पंचम गति का साधन जुटाने, घातिया चतुष्क को नाश कराने वाला मात्र वीतरागी तप मार्ग है। (131) भवघट से तिरने चारों कषायें त्याग सल्लेखी ने दुानों को त्याग रत्नत्रय धारा । (132) निश्चय व्यवहार धर्मसंघीय तीनों साधु वर्ग रत्नत्रय का सेवन करते निश्चय-व्यवहार धर्म सहारे वीतरागी तप करते हैं (133) चार धर्मध्यानी रत्नत्रयी कीर्तिवान होता है। (134) भवचक्र से पार उतरने सल्लेखी तपी निकट भव्य वीतरागी तपस्वी बनता है । (135) जंबूद्वीप में, छत्रधारी राजा भी आत्मस्थ होकर निकट भव्यत्व पाकर पंच परमेष्ठी की आराधना करता हैं । (136) निकट भव्य ने सल्लेखना धारण कर चतुर्गति को नाश करके पंचमगति का प्रयास किया । (137) अदम्य पुरुषार्थी रत्नत्रयी तपस्वी वीतरागी तपस्या ही तपते हैं। (138) पुरुषार्थी पंच परमेष्ठी आराधक ही धर्म सेवी है । (139) (अ) पंचमगति हेतु सल्लेखी दो धर्म ध्यानों से रत्नत्रय धारकर शिखर तीर्थ जाकर निकट भव्यत्व प्राप्त कर वीतरागी तपस्या करता है। (ब) षट् आवश्यक ही वीतराग धर्म का सार है जो भवघट पार कराते हैं। (140) पुरुषार्थी सल्लेखी आत्मस्थ वीतरागी तपस्वी है और उपशमी तप साधना हेतु मांगीतुंगी युगल श्रृंगी पर जिनलिंगियों की सेवारत वीतरागी तपस्या करता है। (141) अरहंत (खण्डित सील)। (142) अर्धचक्री ने आरंभी गृहस्थ होकर जिनशासन के जिनलिंगियों की तरह कभी हार न स्वीकारते दो धर्मध्यानों से निश्चयव्यवहारी रत्नत्रयी झूले में सम्यक्त्वी बने चतुराधक को सेवा देते दशधर्मों वाली तपस्या की और वीतरागी तप का वातावरण बनाया । page.No.CYII (143) भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों के स्वामित्व से उठकर चारों धर्म ध्यानों का स्वामित्व और रत्नत्रय की साधना चाहिए। (144) सिद्धत्व के लिए तीर्थंकर प्रकृति बांधने वाली गुणस्थानोन्नति चाहिए जो भवघट से तिरावे । (145) 'अदम्य पुरुषार्थी सल्लेखी की वीतरागी आत्मस्थता देखकर आरंभी गृहस्थ भी निश्चय-व्यवहार धर्म में शरण ले वीतरागी तपस्वी बनता है। 6) भवघट से तिरने दो धर्मध्यानों के स्वामी ने सप्त तत्त्व चिंतन करते हुए पंचमगति भाई और ढाई द्वीप में दूसरे शुक्ल ध्यान हेतु महामत्स्य सा संहनन उपार्जित कर साधना की । (147) रत्नत्रयी जंबूद्वीप में दुानों को त्याग, राजा ने तीर्थकर प्रकृति को बांध आरंभी गृहस्थ होते हुए तीन धर्मध्यानों से उठकर महाव्रत धारा । (148) भवचक्र को पार करने तीन धर्मध्यानी ने लोकपूरणी (केवली के) समुद्घात से पुण्य का पुरुषार्थ बढ़ाते वीतरागी तप किया 127 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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