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________________ (109) (110) (111) (112) रत्न को पालते हुए स्वसंयमी ने चार गतियों को शेष करने, पंचमगति पाकर भवघट से पार उतरने का साधन किया । वीतरागी तपस्वी दिगम्बर मुनि थे । तीसरे शुक्लध्यान को प्राप्त करने वाले ने सप्त तत्त्व का चिंतन करते हुए पंचमगति पाने वीतरागी तपस्या की । भवचक्र से तिरने वाले पूर्व में दो धर्मध्यानों के स्वामी ने दूसरे शुक्लध्यान ( तक की गुणस्थानोन्नति ) के लिए तपस्वी बन पुरुषार्थ उत्तरोत्तर करते हुए वीतरागी तप किया । भवघट से तिरने वाले दो धर्मध्यानों के स्वामी ने आरंभी गृहस्थ का संहनन महामत्स्य जैसा उत्तम वज्रवृषभनाराच पाकर वीतरागी तपस्या करते मुनिव्रत धारा । (116) तीन धर्मध्यानों के स्वामी ने स्वसंयमी बनकर रत्नत्रयी महाव्रत धारा और वीतरागी तपस्या करते हुए षट् द्रव्यों का चिंतन किया । दशधर्मों के सेवी सम्यक्त्वशील तपस्वी ने महाव्रत धारण करके निश्चय व्यवहारी चतुर्विध संघाचार्य के पास शरण ली घातिया चतुष्क नाश द्वारा भवचक्र से पार होने वालो ने अणुव्रत धार अष्ट मदों को त्याग वीतरागी तप किया । समाधिमरण करने वाले वीतरागी तपस्वी वीतरागत्व वाले निकट भव्य थे । दो धर्मध्यानों के स्वामी ने तपस्या को पुरुषार्थ से उत्तरोत्तर बढ़ाते हुए वीतरागी तप किया । नवदेवता पूजक निकट भव्य ने दो धर्म ध्यानों के स्वामी होते हुए रत्नत्रय पालकर निश्चय व्यवहारी चतुर्विध संघ को स्थापित किया । गृहस्थ ने वीतरागत्व के प्रभाव में अरहंत पद के सम्मुख चारों कषाऐं त्यागकर चार धर्मध्यानी पुरुषार्थ उठाकर वीतरागी तपस्या की । (113) (114) (115) (117) (118) (119) (120) (121) (122) भवचक्र से छुटकारा पाने और सिद्धत्व पाने के लिए छत्रधारी राजा ने ऐलकत्व धारणकर क्रमशः वीतराग तपस्या हेतु मुनिव्रत धारा । भवचक्र से पार होने दोनों निकट भव्यों (युगल बंधुओं ने ) तीर्थकर प्रकृति प्राप्त करने का उद्यम किया और आत्मस्थता पाने पंच परमेष्ठी आराधन किया । (123). गुणस्थानोन्नति के लिए सप्त तत्त्व चिंतन और वीतरागी तप आवश्यक है । (124) लिपि रहित है। (125) समाधिमरण करने वाले चतुराधक वीतरागी तपस्वी हैं जिन्होंने आत्मस्थ होकर निश्चय-व्यवहार धर्म की शरण लेकर चारों कषाऐं त्याग महाव्रत धारा । भवचक्र से पार उतरने रत्नत्रयी वातावरण हेतु दो धर्म ध्यानों से दूसरे शुक्लध्यान तक की यात्रा शाकाहार और वीतरागी तपस्या से ही संभव होती है । (126) (127) भवघट तिरने दो धर्म ध्यानों का स्वामी सल्लेखना तत्पर चतुर्दिक संघीय निश्चय व्यवहारी धर्माचार्य की शरणागत है। (128) आरंभी गृहस्थ भी चतुराधन और रत्नत्रय को अंगीकार करके तीर्थंकर प्रकृति बांधता है। (129) मुनि एवं आर्यिका की गुणस्थानोन्नति पुरुषार्थ और तीन धर्म ध्यानों से उठती है जो वे निश्चय व्यवहार धर्म की शरण Jain Education International 126 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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