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________________ (91) भवघट से पार उतरने दो धर्मध्यानों के स्वामी ने तीन शुक्लध्यानों तक उठकर कमोन्नति से केवली पैद पाया । अर्धचकी ने रत्नत्रय धारते हुए अपने वातावरण को सुरक्षित, संकीर्ण कर लिया और पंच परमेष्ठी आराधना से पुरुषार्थ बढ़ाकर वीतरागी तपस्या की । (93) (1) उस वीतरागी की स्थिति स्वसीमित बतख पक्षी के समान थी जो वैराग्य में वीतरागी दिगम्बर के समान प्रभावी था। (2) सचेलक तपस्वी (3) रत्नत्रयी वातावरण वीतराग तप का था । भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों के स्वामी ने पंचाचार करते हुए तपस्या स्वीकारी और आरंभी गृहस्थ होते हुए भी तीन धर्मध्यानों से स्वसंयम स्वीकारा । अष्टकर्मों से प्रभावित चतुर्गति में भ्रमण कर रहे जीव ने सल्लेखना स्वीकार कर आत्मस्थ तपस्वी होकर निश्चय-व्यवहार धर्मी बनकर वीतरागी तपस्या स्वीकारी ।। भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों के स्वामी ने ऐलकत्व स्वीकारा और भव्यत्व पा गुणस्थानोन्नति की । सिद्धत्व की शरण लेकर भवघट से तिरने दो धर्मध्यानों की भूमिका से उठकर ऐलकत्व धारने वाले तपस्वी ने रत्नत्रयी दस धर्मों का रत्नत्रयी सेवन करते हुए वीतरागी तपस्या की । भवघट से तिरने निकटभव्य ने दो धर्मध्यानों के स्वामित्व से छत्रधारी प्रभु की रत्नत्रयी वातावरणी शासकीय रक्षा दी। (अ) दो धर्मध्यानों से ढ़ाईद्वीप में वीतरागी महाव्रती द्वारा पंचमगति और रत्नत्रय की साधना से तपस्वी वीतरागी तपस्या का वातावरण बना। (ब) निकट भव्य का रत्नत्रयी भव । (100) अष्टकर्म जन्य चतुर्गति से बचने सल्लेखी ने पुरुषार्थ उठाकर महामत्स्य सा संहनन बनाकर वीतराग तप धारा। (101) (अ) स्वसंयमी बन महामत्स्य सा संहनन बनाकर 15 प्रमादों को टाल 12 व्रतों की तपस्या की । (ब) अष्टकर्म जन्य चतुर्गति भ्रमण को जिनलिंगियों ने क्षत किया। (102) शिखर जी/कैलाश जैसे शिखरों पर ही अष्टकर्म जन्य चतुर्गति को तप द्वारा क्षय किया जाता है । (103) भवघट से तिरने तीर्थकर प्रकृति वाले तपस्वियों ने स्वसंयम धारा । (104) भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों के स्वामी ने निश्चय-व्यवहार धर्म की शरण में सम्यक्त्वी आत्मस्थ तपस्या धारकर आरंभी गृहस्थ के तीन धर्म ध्यान प्राप्त करके रत्नत्रयी दशधर्म सेवन करते हुए वीतराग तपस्या को तपा। page No.CVIL 105 -142 (105) भवचक्र से पार उतरने दो धर्म ध्यानों के स्वामी ने बारह भावना भाते निश्चय-व्यवहार धर्म के सहारे सम्यक्त्वी तपस्या के भाव बनाते हुए आरंभी गृहस्थ की स्थिति से तीन धर्मध्यान उठाते हुए स्वसंयम धारा | (106) अष्टकर्म जन्य चार गतियों में भटकते संसारी ने पंचम गति का साधन बनाकर वीतरागी तपस्या में आत्मस्थता की और लोकपूरण किया। (107) समाधिमरण करते सल्लेखी ने आत्मस्थ वीतरागी तपस्वी भाव से सम्यक्त्व धारते निकट भव्यत्व पाकर वीतराग तप किया। (108) पुरुषार्थी ने तीर्थकर प्रकृतिदायी सल्लेखना हेतु ऐलक रहकर निश्चय-व्यवहार धर्म की शरण में गृह त्यागकर वीतरागी तप किया । 125 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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