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________________ (72) गुणस्थानोन्नति करते मुनि एवं आर्यिका पंच परमेष्ठी की शरणागत उत्तरोत्तर पुरुषार्थ बढ़ाते और रत्नत्रयी तपस्वी बनकर पुरुषार्थमय सीमाएं बना आत्मस्थ वीतरागी तपस्या करते हैं और क्रमोन्नति से रत्नत्रयधारी तपस्वी बनते हैं। (74) (81) अस्पष्ट। भवचक्र से पार उतरने दो धर्म ध्यानों के स्वामी ने (आयु को छोड़)7 कर्मों के नाशन का पुरुषार्थ करने के लिए वीतरागी तपस्या की । एकदेश स्वसंयमी ने मन को स्थिर करते हुए गुणस्थानोन्नति की । भवचक्र से पार उतरने दो धर्म ध्यानों के स्वामी ने चार धर्म ध्यान की स्थिति हेतु रत्नत्रय का पालन किया । दो धर्मध्यानों के स्वामी ने सल्लेखना का वैयावृत्ति झूला पाकर रत्नत्रयी साधना के भाव किए। उसका पुरुषार्थ पक्षी सा निरीह उठने गिरने लगा, वह दो धर्मध्यानों सहित तपस्या करता ढाईद्वीप में दूसरे शुक्लध्यान तक उठकर षट् आवश्यक पालने की इच्छा करता है ।। भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानी सल्लेखी ने अणुव्रत धारण करके वीतरागी तपस्या की । भवचक्र से पार उतरने दो धर्म ध्यानों के स्वामी ने दूसरे शुक्लध्यान की भूमिका तक तपस्वी, आर्यिका बनते हुए बारह भावनाऐं भाई और शासक की छांह में निश्चय-व्यवहार धर्मी संघाचार्य के रूप में संरक्षण पाया । भवघट से तिरने दो धर्मध्यानों से ही प्रारंभ करते हुए, जम्बूद्वीप में रत्नत्रय सेवी तथा आर्यिका बन आत्मस्थ हो ढाई द्वीप में रत्नत्रय धारण करते हैं। संघाचार्य के रत्नत्रय और आत्मस्थ वीतराग वैराग्य से दो धर्म ध्यानों के स्वामी प्रभावित होकर रत्नत्रयधारी एकदेश व्रती. सल्लेखी और वीतरागी तपस्वी बनते हैं। भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों के स्वामी उन्नति करके दूसरे शुक्लध्यान की स्थिति तक पहुंचने के लिए तपस्या करके। पुरुषार्थ उन्नतकर वीतरागी तपस्या करते और ध्यानोन्नति करते हैं | अष्टापदों के पुरुषार्थ की तरह (युगल बंधुओं ने ) वीतराग तपस्या की । दोनों तपस्वी युगलों ने वीतराग तपस्या करते मनवचनकाय की समता से पंचमगति की साधना की । भवधट से तिरने दो शुक्लध्यान आवश्यक होते हैं । भवघट से तिरने दो शुक्लध्यान और सल्लेखना सहित वीतराग तपस्या आवश्यक होती है । अरहंत और संध के चारों घटों को अर्धचक्री ने रत्नत्रय पूरित होने वातावरण दिया और दो धर्मध्यानों की भूमिका छत्र धारी राजा और ऐलक बनकर धर्मध्यानी से उठकर तपस्वी बन महामत्स्य जैसा संहनन बना हर कालार्ध में चतुर्गति नाशने वीतरागी तपस्या की। भवचक्र से पार उतरने दो धर्मध्यानों के स्वामी ने रत्नत्रय साधना से आर्यिका, ऐलक, मुनिपद धारते हुए स्वसंयमी इच्छा निरोध स्वीकारा । तपस्वी मांगीतुंगी युगल श्रृंगी पर स्थित निश्चय-व्यवहार धर्मी वीतरागी तपस्वी है। पंचमगति का साधक आरंभी गृहस्थ है जिसने वीतरागी तपस्या स्वीकार करके एक भवतारी गुणस्थानोन्नति की और मोक्ष हेतु तीर्थकरत्व और सिद्धत्व का पुरुषार्थ किया । (88) (89) 124 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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