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________________ (54) (51) पंच परमेष्ठी आराधन द्वारा रत्नत्रय से पंचमगति और गुणस्थानोन्नति भी संभव हो जाती है और दो धर्मध्यान वाले राजा का संरक्षण रत्नत्रयी तपस्वियों को प्राप्त होता है । (52) वीतरागी तपस्वी के रत्नत्रयी वातावरण में निकट भव्य, निश्चय-व्यवहारी धर्म की शरण और चतुराधन का सहारा लेकर समाधिमरण कर्ता दो धर्मध्यानों के रहते भी तपस्वी छत्रधारी राजा एवं संघाचार्य की रत्नत्रयी शरण पा जाता है । (53) सचेलक ऐलक भी समता भावी तपस्वी बनकर वीतरागी तपस्या द्वारा चतुर्गति भ्रमण पर रोक लगा सकता है । खड़गासित कायोत्सर्गी तपस्वी का समाधिमरण शिखर तीर्थ पर षद्रव्यों का चिंतन करते भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों के स्वामित्व से पंच परमेष्ठी की शरण में पहुंचा देता है । अरहंत और सिद्ध अवस्थाऐं पंचाचार से ही प्राप्त होती हैं । भक्तिरत साधक आरंभी गृहस्थ है जो छत्रधारी राजा की शरण में सल्लेखना धार अरहंत भक्ति में लीन तीसरे धर्मध्यान में लीन होता है। भवघट से तिरने वाले दो धर्मध्यानों के स्वामी ने छत्रधारी की शरण ली और वीतरागी तपस्वी का तप करते हुए चतुर्गति भ्रमण को रोकने का उपाय किया । समाधिमरण के साधक ने सिद्धप्रभु की शरण लेकर चतुराधन करते हुए दो धर्मध्यानों से चतुराधक सल्लेखना ली और युगल श्रृंगी, मांगीतुंगी तीर्थ में जिनलिंगी बनकर वीतरागी तपस्या की । (59) चार घातियों को नाश करने दो धर्मध्यानों से साधक ने पुरुषार्थ उठाया और स्वसंयमी बना । अष्टापद की तरह पुरुषार्थ उठाते अर्धचक्री ने रत्नत्रय धारण करके दो धर्म ध्यानों से उठ वीतरागी तपस्वी की शरण ली और रत्नत्रयी वातावरण बनाते हुए वीतरागी तप किया । (61) भवचक्र से पार उतरने और सिद्धत्व की शरण में आरंभी गृहस्थ ने गृहत्याग कर चतुराधन किया । (62/63/64) अंकन रहित है। (65) घातिया चतुष्क को क्षय करने अर्धचक्री ने दिगम्बरी मुनि की शरण में जाकर दो धर्मध्यानों से ऐलक व पश्चात् मुनिव्रत धारणकर आरंभी गृहस्थ की स्थिति से तीन धर्मध्यानों द्वारा भी स्वसंयम साधा । गुणस्थानोन्नति करके तद्भवी मोक्षभावी ने तीर्थकरत्व के लिए दो धर्मध्यानों के स्वामित्व से निश्चय-व्यवहार धर्म की शरण ले चारों कषायों को त्यागकर तपस्या की । गुणस्थानोन्नति हेतु उसने षट् द्रव्य चिंतन और सल्लेखनामय वातावरण में वीतरागी साधना की । त्रिलोकीनाथ सिद्धप्रभु की शरण में महामत्स्य जैसा संहननी भवघट तिरने तथा तीर्थकर प्रकृति बांधने और सिद्धत्व प्राप्त करने की योग्यता बना सकता है । '(68) केवलत्व पाने दो धर्मध्यानों के स्वामी ने तपस्वी बन आरंभी गृहस्थ की तीन धर्मध्यानी स्थिति से उन्नति की । अर्धचक्री ने रत्नत्रयी पंचाचार द्वारा तीर्थंकर प्रकृति कर्मबंध की तप साधना की । (69) अर्धचकी page No.CVI70 -104 70) वीतरागी तपस्वी की चतुराधन प्रभावित अर्धचक्री ने पंचपरमेष्ठी आराधना की। (71) भवघट तिरने आरौिद्रं ध्यानी आरंभी गृहस्थ ने अणुव्रती तपस्वी के चरणों में नौ पदार्थों और चतुराधन का ज्ञान पाया। 123 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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