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________________ (32) भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों के स्वामी ने स्वसंयम धारा और स्वसंयम बढ़ाते हुए (युगल बंधुओं की तरह) पंचाचार करते तपस्वी बनकर स्वसंयम बढ़ाया । निकट भव्य ने रत्नत्रय बढ़ाते घटाते अष्ट कर्म जन्य चतुर्गति भ्रमण को निश्चय व्यवहार धर्म की शरण में चतुराधन से दो धर्मध्यानी भूमिका से समताधारी तपस्वी बन, निकट भव्यत्व बढ़ाते हुए वीतरागी तपस्या की । संघस्थ / प्रतिमाधारी ने वीतरागी तपस्या की । (33) (34) (35) (36) (37) (38) (39) (40) page No. CV 41-69 (41) (42) (43) (44) (45) (46) (47) (48) (49) निकट भव्य ने भरतक्षेत्र में पंच परमेष्ठी आराधना तीन धर्म ध्यानों से करते हुए रत्नत्रय पाला । पक्षी ने भी तीर्थंकर के पादमूल में चारों कषाऐं त्यागकर तपस्यारत होने का पुरुषार्थ उठाया और भवघट से तिरा । निश्चय - व्यवहार धर्म की तुला की शरण लेकर पंच परमेष्ठी आराधक ने महाव्रती बन पंचाचार पालते हुए भवचक को पार किया । संघस्थ हो षट् आवश्यक करते स्वसंयमी ने आरंभी गृहस्थ की भूमिका को भी धर्म ध्यान द्वारा उन्नत किया । भवघट से तिरने दो धर्मध्यानों के स्वामी ने केवली की तप साधना में निश्चय-व्यवहार धर्म सहित चार धर्म ध्यानों तक उठकर अंत में चारों शुक्लध्यान पाने का पुरुषार्थ किया । छत्रधारी राजा ने संघाचार्य बनकर चतुराधन करते हुए वीतरागी तपस्या की । (50) पुरुषार्थवान सल्लेखी ने वीतरागी तपस्या आत्मस्थ होकर तीन धर्म ध्यानों से तपस्वी बनकर स्वसंयम धारा । आरंभी गृहस्थ होकर महाव्रती की सेवा करते दो धर्म ध्यानों के स्वामी ने सम्यक्त्वी तपस्वी बनने महाव्रत की पिच्छी धारने का पुरुषार्थ उठाया और दूसरे शुक्लध्यान की प्राप्ति हेतु वीतरागी तपस्या की । पुरुषार्थी ने प्रतिमा पुरुषार्थ और सामान्य पुरुषार्थ से निश्चय व्यवहार धर्मी संघाचार्य की शरण ली । छत्रधारी रांजा ने निकट भव्य बनकर वीतरागी तपस्या की । पुरुषार्थी अपने रत्नत्रय को सुरक्षित करते हुए निश्चय - व्यवहार धर्म वाले संघ में राजा के संरक्षण में सुरक्षित रहा । आर्यिकाओं की गुणस्थानोन्नति स्वसंयम और पंच परमेष्ठी आराधना से होती है । अष्टापद जैसा भव्य जीव दो धर्म ध्यानों से रत्नत्रय का आधार बनाकर अपने भव को सुरक्षित करके निश्चय-व्यवहार धर्म की शरण में चतुराधन करता दो धर्म ध्यानों से उठकर दूसरे शुक्लध्यान तक समताधारी तपस्वी और रत्नत्रयी, तपस्वी बन निकट भव्य बनता है । अष्टकर्म जन्य चतुर्गतियों से पार पाने रत्नत्रय साधना हेतु दो धर्म ध्यानों से दूसरे शुक्लध्यान तक जाने के लिए तपस्वी को चारों कषाएँ त्यागना पड़ती है । रत्नत्रयी साधक भी पंचम गति को भाते कभी-कभी आर्त रौर्द्र परिणामों से संघ के नेता रूप को धर्म ध्यानी सचेलकों की तरह अपने परिणामों को आत्मस्थता के बनाकर महामत्स्य सा उत्तम संहनन रखता है और महाव्रती बनकर निश्चय व्यवहार धर्म का वीतराग तप करता है । निश्चय व्यवहार धर्म की शरण और पंच परमेष्ठी आराधन स्वसंयमी अणुव्रती तपस्वी को दो धर्मध्यानों से ही चतुरा धन तक ले जाती है और वह रत्नत्रयी महाव्रती बनकर वीतरागी तपस्या करता है Jain Education International 122 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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