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सर जॉन मार्शल की मोहन्जोदड़ो पर हुई शोध आधारित सीलों के अंकन । page No.c||L-11-18) (1) कालचक के अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी आरों के बीतते ऐलकों, आर्यिकाओं, रत्नत्रयी सम्यक्त्वी तपस्वियों मुनियों ने दिगम्बरी
वीतरागी तपस्या क्रमशः की है । जंबूद्वीप के धर्म संघ में चार लिंग हैं । अरहंत की शरण में आत्मस्थ अष्टापद प्राणी भवघट तिरने दो धर्मध्यानों से प्रगति करते बारह भावना भाते सम्यक्त्व . धारण करके आरंभी गृहस्थ भी तीन धर्म ध्यानों से स्वसंयम धारण करता है । तपस्वी ने पंचम गति पाने 22 परीषह जय करके वीतरागी महाव्रत धारण कर अदम्य पुरुषार्थ का यश पाया और 57 प्रकार से आस्रव निरोध करके अपने मूलगुणों को प्रशस्त किया । प्रतिमा पुरुषार्थ से दिगंबर वीतरागी तपस्यारत होते हैं । त्रिगुप्ति धारण करके पुरुषार्थी पक्षियों की तरह दो धर्म ध्यानी जीव भी निश्चय-व्यवहार धर्म की शरण ले लेते हैं और छत्रधारी राजा बनकर कुछ भवों में आरंभी गृहस्थ की स्थिति से उठकर अरहंत पद पाने के लिए गृह त्यागकर दूसरे शुक्लध्यान की प्राप्ति करके केवली की शरण में सल्लेखना, चतुराधन पूर्वक करते हैं । अरहंत बनने वाले दो शुक्लध्यानी रत्नत्रयी हैं । मृत भंवरे को देख तीर्थकर बनने वाले दो क्रमोन्नतिक शुक्लध्यानी पूर्व भवों में सामान्य तपस्वी तथा आर्यिका थे जो आरंभी
गृहस्थ होकर भी अरहंत भक्त, स्वसंयमी थे । (9) कुछ नहीं ।
भवचक्र से पार होने दो शुक्लध्यानी पंचाचारी सल्लेखी पंचाचार लीन रत्नत्रयी श्रमण थे जो वीतरागी तपस्यारत थे। भवघट से तिरने वाले दो धर्म ध्यान धारी सचेलक तपस्वी ने पुरुषार्थ उठाकर प्रथम प्रतिमाएं धारण की पश्चात् रत्नत्रयी महाव्रती का पुरुषार्थ किया। पुनः पुरुषार्थ उठाकर वे वीतरागी तपस्या में लीन हुए और स्वसंयमी बनकर ढाईद्वीप में चतुराधक बने। अर्धचक्री ने सल्लेखना लेकर ढाईद्वीप में चारों कषायों को समूल नाश किया और पंचपरमेष्ठी भक्ति के आधार पर ही बढ़ते हुए महामच्छ सा उत्तम संहनन प्राप्त करके हर उत्सर्पिणी अवसर्पिणी में अष्टकर्मों को नाशने चार गतियों में वीतरागत्व की महिमा को जानते हुए अष्टकर्मों को सल्लेखना से नाशने रत्नत्रयी जम्बूद्वीप में वीतरागी तपस्या की । महामत्स्य के संहननी जीव हर उत्सर्पिणी अवसर्पिणी में अष्ट कर्माधीन चार गतियों में खोते अंततः आत्मस्थ हो वीतरागी तपस्या तपते रहे हैं। भवघट से तिरने दो धर्मध्यानों से दो शुक्लध्यानों तक की साधना तपस्वी तपस्विनी/ऐलक, पंचमगति की प्राप्ति के लिए
वीतरागी तपस्या करते हैं। (15) पंचमगति की भावना भाते हुए अर्धचकी ने अष्टापद जैसा पुरुषार्थ बनाया । (16)(अ) 12 तप तपते युगल बंधु तपस्वियों ने वीतरागी साधना, मन वचन काय की आत्मस्थता से छत्रधारी राजा होकर भी
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