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भी पंचमगति का साधन बनाकर चतुराधन करता है । आत्मस्थ तपस्वी सप्त तत्त्व चिंतन करते हुए पंचम गति की साधना करता निश्चय व्यवहारी दिगंबर तपस्वी बनता है और स्वसंयम अपना कर तीर्थकरत्व हेतु चतुराधन करता है । गुणस्थानोन्नति करता साधक नवदेवता पूजन और नवग्रह व्रत पालता वीतरागी दिगंबरी तपश्चरण करता है । पंचाचारी तपस्वी ढाई द्वीप में ही चतुराधन करता है ।
कुछ सीलें अस्पष्ट होने के कारण छोड़ दी गई हैं।
चूँकि यह सीलें वर्तमान कराची नगर के समीपवर्ती क्षेत्र मोहन्जोदड़ो से प्राप्त हुई हैं और इनमें से कुछ अत्यंत विशेष हैं जो इतिहासकारों की भ्राति दूर कराने में सक्षम प्रतीत होती हैं अतः उन पर यहाँ चिन्तन करना आवश्यक लग रहा है। श्री मैके एवं श्री मार्शल के सील केटेलॉग मोहन्जोदड़ो से प्राप्त पुरासामग्री दर्शाते हैं जिनमें मार्शल की सील कमांक 371 एक विशालकाय हाथी 'मैमथ को रस्सों में बंधा अर्थात पाला हुआ दिखलाती है। अर्थात उस काल का मानव हाथी जैसे पशु
से हिला मिला था, भयभीत नहीं था। वहीं सील कमांक 349 एक डायनासर के समान प्राणी को लिपि अंकन सहित दर्शाती . है अर्थात उसमा
काल में डायनासर भी मानव का सहज सहजीवी बना
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371
349
656
यहीं इसी धरती पर रहा है। उस विशालकाय जीव को लिपि रूप में श्री मैके की सील कमांक 556 में तथा श्री वत्स की लगभग ऐसी ही सील कमांक 619 में हड़प्पा पुरावशेषों में दिखलाया है जहाँ सरीसृप को 'फील्ड मॉडल' के रूप में देखा जा सकता है। ये स्पष्ट करा देती हैं कि वह सैंधव सभ्यता कितनी प्राचीन रही है। समझ नहीं आता कि इतनी स्पष्ट सीलों के अंकनों को क्यों अब तक अनदेखा किया गया ? उस वेदपूर्व कालीन संस्कृति को जो कि वैदिक संस्कृति से सर्वथा अनभिज्ञ थी क्यों सारे ही पुराविदों व्दारा मात्र वैदिक आधार पर पढ़ने का पूर्वाग्रह किया गया।?
पुरालिपि अंकनों व्दारा की गई वे अभिव्यक्तियाँ एक पूर्व से चली आ रही ऐसी गूढ परम्परा को भी उजागर कर रही हैं जो उस काल में वर्तमान के ग्रीस से लेकर इंडोनेशिया तक मध्यपूर्वी देशों और संपूर्ण भारतवर्ष में ही व्याप्त थी। इसीलिए उन सभी भू भागों पर उसके पुरावशेष प्राप्त होते रहे हैं। लौकिक संदेशों से परे अलौकिक रहस्यों का उदघाटन संकेतों में करती वह ऐसे मानव जगत की धरोहर है जिसने पर्वतीय कंदराओं, शैलीय विस्तारों, शैल शिखरों, नदियों के किनारों और वनों को अपना ठौर बनाया भले उन दिनों चाक और जलपोतों व्दारा आवागमन और व्यापार के साधन सुलभ थे, कृषि थी, पशुपालन था, कुशल वास्तु और शिल्प था, पकी ईंटों और मृद भांड़ों का निर्माण था, धातु की भट्टियाँ थीं, पकाया भोजन था, मुद्रा थी, बांट थे, सुव्यवस्थित बसे नगर थे, बंदरगाह थे, तकनीक थी, कलाऐं थीं, वस्त्र थे, आभूषण थे, भक्ति थी, अध्यात्म था, नीति थी, जनपद थे, प्रजातंत्र था, सर्वसम्मत नेता था, अमन चैन प्रिय मनुष्य थे, लेखन था और हिसाब भी। निश्चित ही सुदृढ़ भाषाएं भी रही होंगी और लिपियाँ भी जो अब भूली जाकर भी शोध का विषय हैं।
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