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________________ 701- त्रिलोकीनाथ और तीर्थंकर प्रकृति की अवस्थिति में दो धर्मध्यानी साधक भी निश्चय व्यवहार नय संभालते हुए निकट भव्य बनकर रत्नत्रय धार भक्ति करते हैं। 702- केवली भगवान और तीर्थकर प्रकृति बांधने वाले तद्भवी भी मुनिव्रत धारणकर मोक्षार्थी वीतरागी तपस्यारत रहते हुए पंच परमेष्ठी स्मरण करते हैं । 703- चतुगर्तियों में जीव सदैव ही स्थित है । 704- निकट भव्य भी रत्नत्रय संभालते गिराते आगे बढ़ते हैं । ताम्रपट्टियाँ पुरुषार्थी एकदेश संयम लेकर पुरुषार्थ बढ़ाते हुए वीतरागी तपस्वी बन सकता है ।। पुरुषार्थी एकदेश संयमी से उठकर केवलत्व तक पहुंच सकता है किंतु वीतरागी तपस्या के द्वारा ही । (अ) अंतहीन भटकानों के स्वामी को गिराने वाली 4 गतियां हैं । (उल्टा स्वास्तिक) (ब) सप्त तत्त्व चिंतन करते हुए पंचम गति के साधक का मन स्थिर और तपस्या वीतरागी होती है । तीसरे धर्मध्यान के ज्ञानी को चार अनुयोगों का अध्ययन मदद करता है । तपस्वी अपनी प्रगति को आरंभी गृहस्थ बनकर रोक लेता है और तीन धर्म ध्यानों के साथ भी ढ़ाईद्वीप में कभी आत्मस्थ और कभी विषम होता है । उसका चतुराधन भी जिन सिंहासन को अप्रभावना से अस्थिर बनाता है ? पुरुषार्थी आरंभी गृहस्थ ने तीन धर्मध्यानों के साथ ढाई द्वीप में आत्म स्थिरता और विषमता के बीच गृहस्थ बने रहते हुए भी गृह त्यागा और रत्नत्रय की उपासना की ।। गुणस्थानोन्नति के लिए नवदेवता भक्ति और वीतराग तप ही एक मात्र मार्ग है । गुणस्थानोन्नति हेतु नवदेवता पूजन, वीतरागी दिगंबर जिन मुद्रा और वीतरागी तपस्या ही साधन हैं । निकट भव्य (सचेलक) ऐलक/आर्यिका भी ढाईद्वीप में चार गतियों को नाशने पंचाचार का पालन करते थे। वीतरागी तपस्वी ने मन वचन काय की समता से सल्लेखना धारण करके संघस्थ प्रतिमा धारियों का महाव्रती के रूप में उत्साह बढ़ाया । समाधिमरण चतुर्विधी संघ के साधुओं के पुरुषार्थी आचरण से संभव होता है और अष्टान्हिका तप के द्वारा तीर्थकर प्रकृतिकर्म दिलाता है । आरंभी गृहस्थ के तीन धर्मध्यान पुरुषार्थ बढ़ाते हुए वीतरागी तपस्या से जोड़ते हैं । (12) गुणस्थानोन्नति का मार्ग नवदेवता पूजन, व्रत तथा दिगंबरत्व द्वारा वीतरागी तपस्या हैं। (13) महामत्स्य की तरह उत्तम संहनन पाकर भी उत्सर्पिणी अवसर्पिणी में अष्ट कर्म वाली चतुर्गति भ्रमण करते हुए अंत में वीतरागी तपस्वी बन सल्लेखना धारण का पुरुषार्थ बनाने तीन धर्मधारियों ने चारों अनुयोगों का अध्ययन किया। (14) दूसरे शुक्लध्यानी चतुराधन करते हैं। (15) चतुर्गति भ्रमण में वीतराग तप देवत्व दिलाता है । सिक्के(1) रत्नत्रयी भरत क्षेत्र में आत्मस्थता रत्नत्रयी सल्लेखना लेने में मदद करती और वीतरागी तप में सहयोग करती है। (2) रत्नत्रयी भरत क्षेत्र में छत्रधारी राजा भी वैभव त्यागकर एकदेश स्वसंयम लेकर आरंभी गृहस्थ होकर तीन धर्मध्यानों से (10) 118 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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